Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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श्रीलंका में जैनधर्म
___डॉ. अरविन्द महाजन प्राचीन जैनग्रन्थों में श्रीलंका का उल्लेख सिंहलद्वीप के रूप में हुआ है और इसकी गणना अनार्य देशों में हुई है। जैनग्रन्थों के अनुसार, भरत चक्रवर्ती ने सिंहल-विजय किया था और सम्भवत: उन्होंने ही वहाँ आर्य-संस्कृति का भी बीजारोपण किया। प्राचीन काल में भारत का दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से व्यापारिक सम्बन्ध था और भारतीय व्यापारी जलमार्ग (समुद्रमार्ग) से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की यात्रा किया करते थे। यात्रा के मध्य में सिंहलद्वीप उनकी विश्रामस्थली थी। श्रीलंका के प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है की आर्यों के आगमन से पूर्व वहाँ अनार्यों का वास था।' बाद के काल में जम्बूद्वीप (भारत) से आर्यों की अनेक जातियाँ वहाँ जाकर बसीं। कहा जाता है कि सर्वप्रथम भारत के वंग-प्रदेश से असुर जाति का वररोज नामक सरदार असुर, यक्ष, नाग और नर जाति के लोगों को लेकर सिंहलद्वीप पहुँचा और वहाँ बस गया। रावण उसके पश्चात् सिंहल का राज्याधिकारी हुआ था। इसके काफी समय के बाद लगभग भगवान् महावीर के काल में उड़ीसा के सिंहपुर से विजय नामक राजकुमार सिंहलद्वीप पहुँचा और अपना शासन स्थापित किया। २३६ ई. के पहले श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार हो गया था। जैनग्रन्थों में भी सिंहलद्वीप में सुर, किन्नर, खेचर आदि लोगों के वास का उल्लेख है। ये सभी विद्याधर मानव थे।
जैनग्रन्थों में सिंहलद्वीप का उल्लेख विविध प्रकार से हुआ है। 'करकण्डुचरित्र' के अनुसार करकण्डुनरेश सिंहलद्वीप गये, जहाँ सुर-खेचर-किन्नर विचरण करते थे और जहाँ स्त्रियाँ साक्षात् रति रूप थीं। उन्होंने वहाँ की राजकुमारी से विवाह किया और वहाँ से जलपोतों के द्वारा वापस भारत आये। । श्रीदशभकत्यादि महाशास्त्र में भी सिंहलद्वीप की स्त्रियों का सौन्दर्य-वर्णन है और उन्हें पद्मिनी कहा गया है। भारत के राजा सिंहल की राजकुमारियों से विवाह के लिए लालायित रहते थे। नारायण कृष्ण के समय सिंहलद्वीप के राजा श्लक्ष्णरोमा की पुत्री लक्ष्मणा रूपवती थी। कृष्ण लक्ष्मणा को हर लाये और उसे अपनी रानी बनाया। जैन व्यापारियों का सिंहलद्वीप के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था। मालवा के जैन व्यापारी शूरचन्द ने सिंहलद्वीप जाकर रत्नों का व्यापार किया और अकूत धन अर्जित किया। उज्जैन के राजा गगनचन्द की मित्रता
* पटना-संग्रहालय, पटना
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