Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन-दृष्टि
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ज्ञान की दृढ़ प्रतीति हो और तदनुरूप जीवन में, अपने चरित्र में उस ज्ञान को उतारा जाय, तभी मनुष्य अपने उच्चतम लक्ष्य पर पहुँच सकता है। यही कारण है कि महावीर वर्द्धमान ने धर्म के प्रति अहिंसा को, दया को मूल्य देकर और चिन्तन के क्षेत्र में अनेकान्त के महत्त्व का प्रतिपादन कर आचार और विचार के क्षेत्र में समस्त मानव जाति को सुसभ्य और सुसंस्कृत बनाने का जो ऐतिहासिक महत्त्व का अवदान दिया, उसकी तुलना किसी अन्य धर्म और दर्शन से सम्भव नहीं। उनके विचारों के अमृत-तत्त्व का उल्लेख यों किया गया है :
जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। ___जे सव्वं से एगं जाणइ ॥४०
जो एक पदार्थ को जानता है, वह सबको जान लेता है और जो सबको जानता है, वही एक को जान सकता है । इस जगत् के चेतनात्मक और अचेतनात्मक तत्त्व स्वभाव, गुण
और पर्यायों में अनन्तता से सम्पन्न हैं । अचेतन मिट्टी के कण में बीज-वपन होने से नाना रूप-रंग के अस्वादु और स्वादु फल होते हैं। एक ही मनुष्य सम्बन्धों की अपेक्षा से पिता भी है, पुत्र भी है, भाई भी है । वह नाना सम्बन्धों से जुड़ा विभिन्न भूमिकाओं में प्रस्तुत होता है, उसके अलग अभिधान होते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ में सत्ता-असत्ता, नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता आदि धर्म होते हैं और उनमें परस्पर विरोध भी नहीं होता । इस जीव-रहस्य को हृदयंगम करने के लिए अनेकान्तवाद' एक कसौटी है।
इस दृष्टि से स्याद्वाद की सप्तभंगी-शैली से समन्वित जैन चिन्तन का अनेकान्त और बौद्ध चिन्तन का प्रतीत्यसमुत्पाद या शून्यवाद एक दूसरे के बहुत निकटवर्ती सिद्धान्त हैं। चूँकि दोनों की दृष्टि है सत्य की तलाश में एकांगी न होना और पूर्वाग्रहग्रस्त न होकर सही निष्कर्ष पर पहुँचना। यह ऐसी चिन्तन-शैली है जो खोजी को सत्यान्वेषण की ओर प्रवृत्त करती है। यह दृष्टि दोनों ही चिन्तनधाराओं को केवल करीब ही नहीं लाती अपितु विश्वधर्मों के इतिहास में इन दोनों ही भारतीय धर्मों का स्थान भी सर्वोच्च हो जाता है। गहराई से विचार कर देखें तो दोनों ही धर्मों में चिन्तन की दृष्टि से अहिंसा
और तप की महिमा का विवेचन बार-बार किया गया है। कैवल्य या निर्वाण-पद की प्राप्ति के लिए अहिंसा और तप दोनों ही अनिवार्य साधन ही नहीं, नितान्त आवश्यकताएँ हैं । अहिंसा मन, वचन और कर्म से सम्पन्न हो। महावीर वर्द्धमान का स्पष्ट कथन है : जब सब को अपना प्राण प्रिय है, तो किसी की हिंसा करना कहाँ तक उचित है ? किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए : सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामा सव्वेसि जीवियं पियं ।४१
महावीर की दृष्टि में अहिंसा शाश्वत धर्म है, यही विज्ञान है :
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