Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 259
________________ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में वर्णित संन्यास-धर्म डॉ युगल किशोर मिश्र संन्यास का सिद्धान्त प्राचीन भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण देन है। यह ब्राह्मण एवं श्रमण-परम्परा में समान रूप से विकसित है । संन्यास-सिद्धान्त का प्रवर्तन धार्मिक कृत्यों, रीति-रिवाजों के विरोध-स्वरूप हुआ। वैदिक यज्ञ एवं बलि की प्रथा के प्रतिक्रिया-स्वरूप ही तापस या वैरागी अभ्यासों का उदय हुआ। यह निर्विवाद तथ्य है कि उपनिषद्-काल में संन्यास-सम्मत विचार अधिक प्रबल हुआ तथा चिन्तन-मनन और निदिध्यासन के युग का सूत्रपात हुआ। पुनः बौद्ध एवं जैन साहित्य के समकालीन संन्यास-सिद्धान्त के विशिष्ट रूप का प्रसार हुआ। जैनागम-साहित्य के 'उत्तराध्ययनसूत्र' में संन्यास-धर्म का विशेष विवेचन हुआ है। जैकॉबी' ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि उत्तराध्ययन नौसिखिया संन्यासी के प्रमुख कर्तव्यों तथा संन्यासी जीवन के सिद्धान्त एवं उसके व्यवहार-पक्ष को प्रमुखता से उदाहृत करता है। विण्टरनित्ज' ने इस ग्रन्थ को संन्यास-काव्य की सबसे प्राचीन नाभि-केन्द्र माना है। मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता कि उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित संन्यासियों के सामान्य धार्मिक एवं नैतिक नियमों को जैन-वैशिष्ट्य कहा जाय या नहीं; क्योंकि जार्ल शारपेण्टियर ने इस आशय की शंका प्रकट की है। परन्तु इतना सत्य है कि उत्तराध्ययन में संन्यास-धर्म के उद्देश्य एवं नियमों के विवेचन के साथ-साथ संन्यासी जीवन की श्रेष्ठता दरसाई गई है। उत्तराध्ययन के 'हरिएसिज्ज' अध्ययन में ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ-मण्डप में पहुँचे भिक्षाटन हेतु हरिकेश बल नामक श्रमण को अपमानित करने के दुष्परिणामों का वर्णन है तथा यह भी दरसाया गया है कि कैसे उस श्रमण ने जाति-मद से गर्वित हिंसक ब्राह्मणों को त्याग एवं तप की महिमा बताई तथा यज्ञ-विधान में अन्तर्निहित सदुद्देश्यों की ओर उन्हें प्रेरित किया। यहाँ यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि इस अध्ययन में यद्यपि ब्राह्मण-यज्ञ-संस्कार की त्रुटियों का निर्देश करते हुए उसकी निन्दा की गई है, तथापि श्रमण-धर्म की मूल अवधारणा के अनुरूप ब्राह्मण जाति या उनके अनुष्ठानों के प्रति कोई विद्वेष का भाव नहीं व्यक्त किया गया है। किसी जाति या सम्प्रदाय या उसके रीति-रिवाज या साहित्य में बुराई नहीं होती। बुराई तो अज्ञानता या दम्भ में होती है। * निदेशक, प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध-संस्थान, वैशाली (बिहार) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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