Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 229
________________ 200 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 आचारांगसूत्र में इस 'अहिंसा' विषय को विस्तृत रूप से विवेचित किया गया है । साधारण रूप से हिंसा का अर्थ किसी जीव का हनन करना ही समझा जाता है, लेकिन ऐसा है नहीं । अहिंसा की व्याख्या अति व्यापक तथा उदार है। केवल प्राणों से रहित करना ही हिंसा नहीं है, लेकिन दण्डादि से प्रहार करना, किसी को गुलाम बनाना, दूसरों पर अभिमान से हुकूमत चलाना, दूसरों को बन्धन में बाँधना, नौकर-चाकरों के प्रति दुर्व्यवहार करना, शारीरिक एवं मानसिक सन्ताप देना ये सभी हिंसा है। फूल की पँखुड़ी को कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है, तो अहिंसक व्यक्ति किस तरह किसी के मन को या शरीर को पीड़ा पहुँचा सकता है ? अहिंसा का उपासक मन से भी किसी को कष्ट पहुँचाने की भावना नहीं कर सकता । अपने आश्रय में रहते हुए नौकर-चाकर या पशुओं पर अत्याचार नहीं कर सकता। वह समझता है कि सब जीव मेरे समान ही सुख चाहते हैं, उनमें चेतना-तत्त्व है, वे भी मनः शक्तिवान् हैं, और वे भी जीवन की इच्छा रखते हैं । जैनधर्म का प्राण ही अहिंसा है। जिनेन्द्र-वचन अहिंसामय ही है । अहिंसा ही विश्वशान्ति का मूल है । अहिंसा से ही सब प्राणी सुरक्षित और निर्भय रह सकते हैं। अहिंसा ही संसार में सुख और कल्याण की जननी है । I F चूँकि अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है, अतएव वह किसी सम्प्रदाय, समाज या मजहब के लिए नहीं है, परन्तु प्राणीमात्र के लिए है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें किसी खास व्यक्ति या समूह के लिए नहीं है, परन्तु प्राणी मात्र के लिए है, उसी प्रकार तीर्थंकरों ने यह उपदेश किसी खास व्यक्ति, मजहब या पक्ष के लिए नहीं दिया, बल्कि प्राणीमात्र के लिए दिया है । संसार में प्रत्येक प्राणी को धर्म-तत्त्व की अनिवार्य आवश्यकता रहती है । कोई भी प्राणी धर्म से पृथक् नहीं रह सकता, जिसमें विकास का तारतम्य पाया जाता है I अहिंसा के बिना धर्म नहीं, और धर्म के बिना अहिंसा नहीं । जैन शब्द किसी कुल, जाति या समाज की संज्ञा नहीं है, किन्तु यह गुणवाचक है। जैन धर्म का द्वार संसार के प्रत्येक मनुष्य तो क्या, पशुओं के लिए भी खुला है जैन धर्म ने अहिंसा की जैसी व्यापक व्याख्या की है, वैसी और कहीं भी देखने को नहीं आती । जैन धर्मावलम्बी अर्हत् आदि पंचपरमेष्ठियों ने अहिंसा का ही जीवन जिया । अहिंसा से भिन्न उनका कोई धर्म अथवा जीवन नहीं था । वैदिक विचार-धारा में अहिंसा का प्रवाह : विश्व - साहित्य में आदि व्यवस्थित साहित्यिक संग्रह ऋग्वेद आदिमानव के लिए धर्म, दर्शन, विज्ञान, आचरण, सामाजिक व्यवहार आदि का एक विश्वकोष है । उसमें तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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