Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
प्रायः एकरूपता दृष्टिगोचर होती है। जैनधर्म में तत्त्व-निरूपण द्वारा लोक के स्वरूप का विवेचन करके तथा कर्म सिद्धान्त के प्रतिपादन का जो मार्ग बतलाया गया है, वही जैन आचार-संहिता का प्रथम सोपान है। जैनाचार्य उमास्वामी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र इन तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा है
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सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: ।
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मोक्षमार्ग में इन तीनों की प्रधानता होने से इन्हें 'त्रिरत्न' भी कहा गया है । इन तीनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । ३५ सम्यग्दर्शन आत्मसाधना का प्रथम सोपान है I जीव, अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण सही बनता है । सम्यग्दर्शन के उपरान्त साधक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करता है । जिन तत्त्वों पर उसने श्रद्धान किया था, उन्हीं को वह पूर्ण रूप से जब जानता है, तब उसे सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है । सत्य की अखण्डता को आदर देते हुए उसके बहुआयामों को जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का विषय है । जैन ग्रन्थों में सम्यक्चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवनचर्या को ध्यान में रखकर किया गया है । साधु-जीवन के आचरण का प्रमुख उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार है, जबकि गृहस्थों के चारित्र - विधान में व्यक्ति एवं समाज के उत्थान की बात भी सम्मिलित है । इस प्रकार निवृत्ति एवं प्रवृति दोनों का समन्वय इस त्रिरत्न - सिद्धान्त में हुआ है। जैन धर्म के समान अन्य भारतीय दर्शनों में भी परमसत्ता की प्राप्ति के लिए त्रिविध-साधना-मार्ग को अपनाया गया है । बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा की साधना से निर्वाण की प्राप्ति बताई गई है। गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग को प्रमुखता दी गई है। वैदिक परम्परा में वर्णित श्रवण, मनन और निदिध्यासन-साधना का जो विधान है, उसका जैन धर्म के दर्शन, ज्ञान चारित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है । परमात्मा की प्राप्ति के इस त्रिमार्ग से पाश्चात्य विचारक भी सहमत हैं, जहाँ स्वयं को जानो, स्वयं को स्वीकार करो और स्वयं ही बन जाओ - ये तीन नैतिक आदर्श कहे गये हैं । साधना के इन मार्गों में समानता खोजने से परमसत्ता के स्वरूप एवं उसकी अनुभूति में भी समानता के दर्शन हो सकते हैं; क्योंकि अन्त में जाकर साधक, साधना-मार्ग और साध्य इनमें कोई अन्तर नहीं रह जाता । जैनाचार्य कहते हैं आत्मा ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। जब वह अपने शुद्ध रूप में प्रकट होती है, तब वह परमात्मा कहलाती है । वहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाता है | 'ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति' का आदर्श सार्थक हो जाता है । इसे डॉ. राधाकृष्णन् ‘अध्यात्मवादी धर्म' (रिलिजन ऑफ द सुप्रीम स्पिरिट ) कहते हैं । जैन धर्म में इस परमसत्ता की स्थिति को पूज्यपाद ने इस प्रकार स्पष्ट किया है कि जो परमात्मा है, वह मैं हूँ, जो मैं हूँ, वही परमात्मा है । मैं ही मेरे द्वारा उपास्य हूँ, दूसरा कोई नहीं ।' इस शुद्ध स्वरूप की स्थिति को शंकर ने इस प्रकार व्यक्त किया है :
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