Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

View full book text
Previous | Next

Page 202
________________ गुणस्थान-सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास 173 में स्पष्ट हैं कि ये गाथाएँ नियुक्ति की मूल गाथाएँ नहीं हैं (देखें : आवश्यक नियुक्ति : टीका, हरिभद्र, भाग २, पृ. १०६-१०७)। इस समस्त चर्चा से ऐसा लगता है कि लगभग पाँचवीं शताब्दी के अन्त में गुणस्थान की अवधारणा सुव्यवस्थित हुई और इसी काल में गुणस्थानों के कर्म-प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, विपाक आदि से सम्बन्ध निश्चित किये गये। समवायांग में गुणस्थान की अवधारणा को 'जीवस्थान' के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि “कर्मों की विशुद्धि की मार्गणा की उपेक्षा से प्रत्युत १४ जीवस्थान प्रतिपादित किये गये हैं”। समवायांग की इस चर्चा की यदि हम तत्त्वार्थसूत्र से तुलना करते हैं, हम पाते हैं कि उसमें भी कर्मनिर्जरा की अपेक्षा से १० अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। 'कम्मविसोहि मगणं' (समवायांग) और 'असंख्येयगुणनिर्जरा' (तत्त्वार्थसूत्र) शब्द तुलनात्मक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार समवायांग में 'सुहं सम्पराय' के पश्चात् 'उवसामए वा खवए वा' का प्रयोग तत्त्वार्थ के उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों को स्मृतिपटल पर उजागर कर देता है। इससे यह भी फलित है कि समवायांग के काल तक श्रेणी-विचार आ गया था। उपशमक, उपशान्त और क्षपक शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ कसायपाहु और तत्त्वार्थसूत्र में व्यवहत सम्यक्, मिश्र, असम्यक् एवं संयत, संयतासंयत (मिश्र) और असंयत शब्दों के प्रयोग हमें यह स्पष्ट कर देते हैं कि कसायपाहुडसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र की कर्मविशुद्धि की अवस्थाओं के आधार पर ही गुणस्थान-सिद्धान्त को विकसित किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-सिद्धान्त के बीज : तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-सिद्धान्त के बीज उसके नवें अध्याय में मिलते हैं। नवें अध्याय में सर्वप्रथम परिषहों के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विकास की चर्चा हुई है, उसमें बताया गया है कि “बादर सम्पराय की स्थिति में २२ परिषह सम्भव होते हैं। सूक्ष्म सम्पराय और छद्मस्थ वीतराग (क्षीणमोह) में १४ परिषह सम्भव होते हैं। जिन भगवान् में ११ परिषह सम्भव होते हैं।"१९ इस प्रकार यहाँ बादर सम्पराय, सूक्ष्म सम्पराय, छद्मस्थ वीतराग और जिन-इन चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। पुनः ध्यान के प्रसंग में यह बताया गया है कि अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत-इन तीन अवस्थाओं में आर्तध्यान का सद्भाव होता है। अविरत और देशविरत में रौद्रध्यान की उपस्थिति पायी जाती है। अप्रमत्तसंयत को धर्मध्यान होता है। साथ ही यह उपशान्तकषाय एवं क्षीणकषाय को भी होता है। शुक्लध्यान, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और केवली में सम्भव होता है"।° इस प्रकार यहाँ अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, उपशान्तकषाय (उपशान्त-मोह), क्षीणकषाय (क्षीण-मोह) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286