Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
118
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
में गये । वहाँ छह महीनों बाद एक वत्सपालक वृद्धा के हाथ से खीर की पारण किया। बारहवें चातुर्मास में वे वैशाली होते हुए कौशाम्बी आये। यहीं पर छह महीने पूरे होने में पाँच दिन शेष रह गये थे। चन्दना के हाथों उबाले हुए कुल्माष से पारण किया। यही चन्दना बाद में चलकर महावीर वर्द्धमान की प्रथम साध्वी हुई।१३ कैवल्य और सम्बोधि की प्राप्ति :
कठोर तपस्या और साधना के बाद ही महावीर वर्द्धमान को कैवल्य-ज्ञान प्राप्त हुआ और सिद्धार्थ को अमृत-पद का ज्ञान । दोनों ने अपने अमृत-तत्त्व का ज्ञान तत्काल प्रकाशित नहीं किया। कैवल्य-ज्ञान की प्राप्ति वैशाख शुक्ल दशमी, रविवार को हुई और उसका प्रकाशन छियासठ दिनों बाद आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ, जब इन्द्रभूति, वायुभूति और अग्निभूति जैसे विद्वान् ज्ञानपिपासु अल्पेच्छु उसके लिए प्रस्तुत हो सके। ये तीनों ही चौदह पारम्परिक विद्याओं में पारंगत थे। तीनों ही भाई थे। इनके अतिरिक्त अन्य आठ विद्वान् अव्यक्त, सुधर्मा, अचल, भ्राता, प्रभास आदि को पावापुरी-राजगृह के मध्य कहीं हुआ। महावीर वर्द्धमान ने ज्ञान की जिन उदात्त किरणों का आलोक-दान किया, वे मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र के हित और जन्म-मरण के दुःखदायक बन्धन से मोक्ष के लिए था। उन्होंने जीव की नित्यता, अनन्तता, जीव और देह की भिन्नता और कर्म की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए उन ग्यारह शिष्यों की शंकाओं का समाधान किया। इन्हीं उज्ज्वल चिन्तन-बिन्दुओं के अन्तर्गत स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, परमाणुवाद जैसी गहन विचार-सरणि का प्रवर्तन हुआ, जो आज भी जैनधर्म की महत्ता और प्रतिष्ठा के
आलोकस्तम्भ हैं। . तपस्या के पश्चात् सिद्धार्थकुमार ने ज्ञान प्राप्त किया प्रतीत्यसमुत्पाद का, मध्यम मार्ग के चिन्तन का-वीणा के तारों को इतना न ऐंठो कि वह टूट जाय और न इतना शिथिल करो कि उसके तारों से आनन्दोल्लसित करनेवाला स्वर का नाद ही न उद्भूत हो। जीवन के सुखों में एक दम डूबे न रहो और न सुख का नितान्त त्याग कर जीवन को दुःखमय ही बनाओ। भोग और त्याग, संयम और राग के दो कुलों के बीच से मानव जीवन-धारा विकसित होती है। जीवन दुःखमय है, दुःख के कारण हैं, उन दुःखों पर विजय पाने के उपाय भी हैं। आर्य अष्टांगिक मार्ग के अनुसरण करने से ही वह दुर्लभ ज्ञान प्राप्त होता है । जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म-परम्पराओं में ब्रह्मचर्य पर बहुत बल दिया गया है।
गौतम बुद्ध ने भी ज्ञान प्राप्त कर तुरन्त ही ज्ञानोपदेश नहीं किया। सात सप्ताह तक अचल समाधि पुनः ली। तब वे ऋषियों की भूमि सारनाथ आये। वही, धर्मचक्र प्रवर्तन' के नाम से विख्यात हुआ। दोनों के ही ज्ञानोपदेश की घटनाओं के सन्दर्भ में अद्भुत साम्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org