Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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वसुदेवहिण्डी की खण्डकथाएँ
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अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और वह विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती है, किन्तु कुबेरदत्त पुनः अपनी माता कुबेरसेना गणिका के घर आकर उसके साथ भोगलिप्त होकर एक पुत्र को जन्म देता है । पुनः कुबेरदत्ता द्वारा वस्तुस्थिति का ज्ञान कराने पर कुबेरदत विरक्त हो उठता है और तपस्या द्वारा अपने शरीर का क्षय करके देवत्व को प्राप्त करता है।
इस प्रकार, उक्त दोनों कथानकों का कामकथा से धर्मकथा में उदात्तीकरण हुआ है। इससे स्पष्ट है कि कथाकार ने उक्त प्रकार की कथाओं को ‘कथानक' कोटि में वर्गीकृत किया है, जो आगमिक कथा-सिद्धान्त के अनुसार 'विकथा' है।
क्रान्तदर्शी कथाकार ने 'वसुदेवहिण्डी' की सात उपकथाओं को 'कथा' शब्द से निर्देशित किया है। इनमें पहली कथा (दुल्लहाए धम्मपत्तीए मित्ताणं' कहा : १०.८) जम्बू के माता-पिता के साथ संवाद-क्रम में ही कही गई है, जिसमें कुछ युवा मित्रों ने एक तीर्थंकर के दर्शन करने और उनका प्रवचन सुनने के बाद, समवसरण में ही प्रव्रजित होकर दुर्लभ धर्म प्राप्त किया। इसी प्रसंग में ही दूसरी 'कथा' (इंदियविसयपसत्तीए निहणोवगयवाणरकहा : १३.१२) आई है। इसमें एक ऐसे वानर-यूथपति की कथा है, जो अपने दल के एक बलिष्ठ वानर से पराजित होकर पहाड़ पर भाग गया और वहाँ उसने एक गुफा की शरण ली। गुफा में शिलाजतु का रस बह रहा था । प्यासा वानरनायक उसे पानी समझकर पीने लगा और उसी में चिपककर मर गया। कथा के उपसंहार में बताया गया है कि इन्द्रिय-विषयों में फँसकर मनुष्य वानर-यूथपति की भाँति दुःखमय मृत्यु को प्राप्त करता है।
तीसरी 'कथा' (पमत्ताए लद्धमहिसजम्मणो माहणदारयस्स कहा : ५९-४) जम्बू-प्रभव-संवाद के प्रसंग में प्रस्तुत की गई है। इस कथा में देव-भव में स्थित ब्राह्मण पिता ने महिष-भव को प्राप्त अपने पुत्र को धर्ममार्ग पर ले आने के निमित्त उसे, अपनी मति से एक कसाई का निर्माण कर उससे उत्पीड़ित कराया है और इस प्रकार, प्रति-बोधित करके पिता ने पुत्र का तिर्यग्गति से उद्धार किया है।
चौथी 'कथा' (सकयकम्मविवागे कोंकणय-बंभणकहा : ८०.४) 'धम्मिल्लचरित' में कही गई है। इसमें मगध-जनपद के पलाशग्राम के कोंकणक नामक ब्राह्मण की कथा है, जो कर्मविपाकवश (शमीवृक्ष के नीचे स्थापित देव को बकरे की बलि चढ़ाने के कारण) मरने के बाद स्वयं अपने घर में ही बकरे के रूप में उत्पन्न हुआ। कुछ दिनों बाद कोंकणक का पुत्र उस बकरे को, अपने मृत पिता के लिए भोग के उद्देश्य से, मारने के निमित्त ले चला। परन्तु, एक सिद्ध साधु के वस्तुस्थिति समझाने पर कोंकणक के पुत्र ने उस बकरे को मुक्त कर दिया। कथा के उपसंहार में बताया गया है कि स्वयंकृत कर्म
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