Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
अत: वैशाली में जन्मधारण के कारण महावीर को 'वेसालीए' (वैशालीय) कहा गया है (सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन सूत्र) । वैशाली-उत्खनन से प्राप्त एक मृण्मुद्रा में अंकित 'वैशाली नाम कुण्डे कुमारामात्याधिकरण' (गुप्तकाल) से प्रमाणित होता है कि वैशाली के (वैशाली-स्थित क्षत्रियकुण्ड) इस कुण्ड की स्मृति चौथी-पाँचवीं सदी में भी शेष थी। आज का बासोकुण्ड उस ऐतिहासिक कुण्डपुर का स्मृति-अवशेष है। सुप्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग (६२९-६४५ ई.) के वैशाली-वृत्तान्त के अनुसार (६३७ ई.) वैशाली में निर्ग्रन्थों की संख्या अच्छी थी। वैशाली से प्राप्त जैन तीर्थंकरों की पालयुगीन (७७०-११९९ ई) मूर्तियों में एक वैशाली के 'बौनापोखर' पर बने जैन मन्दिर में वर्षों से पूजित है। 'विविधतीर्थकल्प' (जिनप्रभसूरि, १४वीं सदी) में कुण्डग्राम को जैनतीर्थ कहा गया (खत्तिअकुण्डग्गामनयर, वेसालीवाणिअग्गा) है। ऋषभनाथ की प्राचीन मूर्ति (छठी सदी) रामचन्द्रशाही संग्रहालय, मुजफ्फरपुर में प्रदर्शित है। इस प्रकार (वज्जी) विदेह की राजधानी वैशाली (कल्पसूत्र) के कुण्डग्राम में छठी सदी ई.पू. में चौबीसवें (अन्तिम) तीर्थंकर वर्द्धमान का जन्म ज्ञातृकुल (जथरिया-राहुल सांकृत्यायन) में हुआ था। उनके उपदेश क्षत्रियों की उसी विद्रोही परम्परा में थे, जिसका उपनिषद्-काल में क्षत्रियों ने, विशेषकर काशी के राजकुल के पार्श्व ने ढाई सौ वर्ष पहले किया था और ये उपदेश जनभाषा में किये गये, जबकि उपनिषद्-कालीन क्षत्रिय-नेतृत्व ने संस्कृत को ही प्रश्रय दिया था। महावीर ने पहली बार जनभाषा (प्राकृत) का प्रयोग किया और इसी भाषा के माध्यम से सद्धर्म का प्रचार एवं प्रसार बज्जी-विदेह से मगध तक वे करते रहे । महावीर की भाषा-नीति को शाक्यसिंह अमिताभ बुद्ध ने भी (पालि) अपनाया। इस प्रकार वज्जी-विदेह और मगध-जनपदों में संस्कृत के समानान्तर सद्धर्म और तद्विषयक साहित्य की भाषा पालि (बौद्ध) तथा प्राकृत (जैन) बनी।
'वीरवर्धमानचरित' (सकलकीर्ति, १५वीं सदी) में तीर्थंकर महावीरकालीन विदेह और कुण्डपुर के विपुल सांस्कृतिक चित्र उपन्यस्त किये गये हैं। तदनुसार तयुगीन भारत के विशाल सांस्कृतिक प्रदेशों में परिगणित विदेह-परिक्षेत्र में देव, मनुष्य और विद्याधरों से वन्दित तीर्थंकरों तथा सामान्य केवलियों की निर्वाणभूमियाँ पग-पग पर दृष्टिगोचर होती थीं। वहाँ के वन-पर्वत आदि ध्यानावस्थित योगियों द्वारा निरन्तर आसेवित थे और नगर-ग्राम आदि ऊँचे-ऊँचे जिन-मन्दिरों से सुशोभित थे। धर्म-प्रवृत्ति के निमित्त केवलज्ञान-प्राप्त तीर्थंकर तथा गणधर-संघ के साथ वर्षावास एवं तपोविहार किया करते थे। वैशाली, चेचर, गढ़अलौली (खगड़िया), चौसा, चन्दनकियारी, लोहानीपुर (पटना) आदि से प्राप्त तीर्थंकरों की मूर्तियाँ इसके उदाहरण हैं । ये जैन मूर्तियाँ कायोत्सर्ग तथा योगासीन दोनों मुद्राओं में बनी हैं, जिनमें योगासीन मूर्तियों को अधिक लोकप्रियता मिली।
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