Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Rescarch Bulletin No. 8
नादंसणिस्सं नाणं नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा। अगुणिस्स णस्थि मोक्खो, णस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।
तथागत ने महावीर की भाँति अपने उपदेशों में इस बात पर बार-बार बल दिया है कि निष्काम जीवन बिताकर ही मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य 'निर्वाण' को प्राप्त कर सकता है :
एतमत्थवसं ञत्वा पंडितो सीलसंवुतो। निब्बाणा-गमनं मग्गं खिप्पमेव विसोधये ॥२० उच्छिन्द सिनेहमत्तनो, कुमुदं सारदिकं व पाणिना।
सन्तिमग्गमेव ब्रूहय, निव्वाणं सुगनेनदेसितम्॥१ निर्वाण को चरम लक्ष्य दोनों ही धर्म-मार्गों का है। उसकी अवधारणा में तो समानता है ही। उसके साधनों-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य से ही निर्वाण या मोक्ष जैनदृष्टि से सम्भव है। उसी प्रकार बौद्ध चिन्तन में आर्य अष्टांगिक मार्ग–सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव (शील), सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। वहाँ साधन चार हैं तो यहाँ आठ । इन्हीं आठों के माध्यम से दुःख-निरोध या निर्वाण-पद मनुष्य प्राप्त करता है। यह उल्लेखनीय है कि 'दृष्टि' शब्द ज्ञानवाचक है। मनुष्य को जब कुशल (अहिंसा, अचौर, अव्यभिचार, अमृषावचन, अपिशुनवचन, अपुरुषवचन, असम्प्रलाप) और अकुशल (हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ, चुगलखोरी, कठोरवचन, सम्प्रलाप) कर्मों का ज्ञान हो जाता है, कुशल कर्मों के सम्पादन का प्रबल संकल्प दृढ़तर होता जाता है। उत्तरोत्तर सिद्धिगामी सीढ़ियों से गुजरता हुआ साधक निर्वाण-पद प्राप्त करता है। इसीलिए धर्मपद में कहा गया है-मार्गों में अष्टांगिक श्रेष्ठ है, लोक के सत्यों में चार आर्य सत्य श्रेष्ठ हैं :
मग्गानटुंगिको सेट्ठो सच्चानं चतुरो पदा।२२ बौद्ध चिन्तन की गहनता का सार धर्मपद के इन तीन अमृत उपदेशों में सम्पुटित
सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा।
सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धस्स शासनम् ॥ सब पापों को न करना, कुशल कर्मों का उपसम्पादन और चित्त की शुद्धि, बुद्ध का यही शासन है।
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