Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत- अपभ्रंश छन्द : परम्परा एवं विकास
डॉ. गदाधर सिंह
भारतीय वाङ्मय में छन्दः शास्त्र का महत्त्व प्रारम्भ से ही रहा है। वेद के अर्थज्ञान का उपकारक होने के कारण इसे 'षडंग' में स्थान दिया गया था । पाणिनीय शिक्षा के अनुसार छन्द वेद का पादवत् उपकारक है - छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते (पाणिनीय शिक्षा, चरणव्यूह खण्ड) । सायण ने भी वेदार्थ के ज्ञान में छन्दों की उपयोगिता को स्वीकार किया है । एतेषां च वेदार्थोपकारिणां षण्णां ग्रन्थानां वेदाङ्गत्त्वम् ॥ भरतमुनि तो यहाँतक कह दिया है कि छन्द से रहित कोई शब्द नहीं और शब्द से रहित कोई छन्द नहीं ।
छन्दहीनो न शब्दोऽस्ति न छन्दः शब्दवर्जितम् । (नाट्यशास्त्र, १४.४५) पिंगलछन्दः सूत्र के टीकाकार हलायुध भट्ट ने छन्द को कवियों की आँख माना -कवीनां नयनस्य च ॥ (१/३)
छन्द और छन्दस् पद की निरुक्ति क्षीरस्वामी ने 'छद्' धातु से बतलाई है । यास्क ने ‘छन्दांसि छादनात् (निरुक्त, ७ । १२) कहकर आच्छादन के अर्थ में 'छन्द' शब्द का अस्तित्व स्वीकार किया है । सायण ने ऋग्वेदभाष्यभूमिका में 'आच्छादकत्वाच्छन्दः' कथन द्वारा यास्क का समर्थन किया है । छान्दोग्योपनिषद् (१.४,२) की एक गाथा के अनुसार देवगणों ने मृत्यु के भय से बचने के लिए ऋक्, यजु और सामवेदों में प्रवेश किया और छन्दों ने उन्हें भय से बचाने के लिए उनका आच्छादन कर दिया। ऐतरेय आरण्यक के अनुसार स्तोता को आच्छादित करके छन्द पापकर्मों से रक्षित करते हैं (ऐतरेय आरण्यक, २.२) । वैदिक दर्शन के अनुसार छन्द 'वाक् - विराज' का नाम है, जिससे सम्पूर्ण विश्व विकसित होता है ।
साहित्य में छन्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता है । इसे परिभाषित करते हुए कात्यायन ने 'ऋक्सर्वानुक्रमणी' में अक्षर के परिणाम को छन्द कहा है— 'यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः' पिंगल के 'छन्दःसूत्रम्' की टीका में हलायुध ने उपर्युक्त बात की पुष्टि करते हुए लिखा है :
छन्दः शब्देनाक्षरसंख्यावच्छन्दोऽत्राभिधीयते । (२.३)
युनिवर्सिटी प्रोफेसर, स्नातकोत्तर हिन्दी - विभाग, जैन कॉलेज, आरा (बिहार)
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