Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8.
... सब अनेकान्तात्मक है, ऐसा व्यवस्थापन होने पर उसके बल से एकान्त का निरास करने के लिए 'स्यात्' पद का प्रयोग नहीं होने पर भी उसके ज्ञाता का बोध हो जाता है। किसी पद या वाक्य का अर्थ एकान्त रूप नहीं है। कथंचित् एकान्त तो 'सुनय' की अपेक्षा अनेकान्त रूप ही है। अतः सात प्रकार के वाक्यों में 'स्यात्' पद का बोध होता ही है।
आशय यह है कि 'स्यात्' शब्द के प्रयोग का अभिप्राय रखनेवाला व्यक्ति यदि "स्यात्' शब्द का प्रयोग न भी करे, तो भी उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है । अतः ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं करने पर भी कोई दोष नहीं है । परन्तु प्रत्येक वस्तु के अनेकान्तात्मक होने से 'स्याद्वाद' के बिना किसी भी वस्तु का यथार्थ ग्रहण सम्भव नहीं है। ___यदि सब अनेकान्तात्मक है, तो अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक होना चाहिए। ऐसी स्थिति में 'स्यात्' अनेकान्त है और 'स्यात्' अनेकान्त नहीं है, ऐसा करने पर अनेकान्त का निषेध होकर एकान्त की भी विधि प्राप्त होती है। इसके लिए हम यह समाधान उपस्थित कर सकते हैं कि अनेकान्त भी एकान्तसापेक्ष होता है और एकान्त अनेकान्तसापेक्ष । एकान्त के दो भेद हैं-'सम्यक् एकान्त' और 'मिथ्या एकान्त'। इसी तरह अनेकान्त के भी दो भेद हैं-'सम्यक अनेकान्त' एवं 'मिथ्या अनेकान्त' । हेतु-विशेष की अपेक्षा से प्रमाण से जानी हुई वस्तु के एक देश को जो कहता है, वह सम्यक् एकान्त है और जो एक ही धर्म को पकड़कर दोष-धर्म का निराकरण करता है, वह मिथ्या एकान्त है। जो एक वस्तु में प्रतिपक्ष-सहित अनेक धर्मों का युक्ति और आगम से अविरुद्ध कथन करता है, वह सम्यक् अनेकान्त है और जो काल्पनिक अनेक धर्मों का निरूपण करता है, वह मिथ्या अनेकान्त है । सम्यक् एकान्त को नय कहते हैं और सम्यक् अनेकान्त को प्रमाण कहते हैं। नय की अपेक्षा से एकान्त होता है और प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त। यदि केवल अनेकान्त ही हो और एकान्त न हो, तो एकान्तों के समूह-रूप अनेकान्त का भी अभाव हो जाता है, जैसे शाखा-पुष्प-पत्र के अभाव में वृक्ष का अभाव होता है।
निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं। अतः उनका समूह भी मिथ्या होता है। सापेक्ष नय सुनय होते हैं। अतः उनका विषय अर्थ-क्रियाकारी होने से उनका समूह मिथ्या नहीं होता।
विरोधी धर्म का निराकरण करने का नाम निरपेक्षता है। और विचार के समय विरोधी धर्म की अपेक्षा न होने से उपेक्षा होना सापेक्षता है। यदि ऐसा न माना जाय तो प्रमाण और नय में कोई भेद न रहे; क्योंकि अनेकान्त रूप वस्तु के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं और धर्मान्तर की अपेक्षा रखते हुए अनेकान्त रूप वस्तु के एक धर्म के जानने
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