Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आध्यात्मिक रूपक-काव्य और हिन्दी के
जैनकवि
श्री अनिलकुमार शर्मा * आचार्यों ने बहुत सोच-समझकर यह सिद्धान्तवाक्य प्रस्तुत किया—'काव्येषु नाटकं रम्यम्।' वस्तुतः नाटक अरूप पर रूप की तथा निर्गुण पर सगुण की विजयघोषणा है।
दृश्य-काव्य को रूपक कहते हैं। कारण स्पष्ट है। सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् रूप का विषय है। रंगमंच पर निर्मित सृष्टि भी रूप को आधार बनाकर खड़ी होती है। इस सृष्टि का आनन्द उठानेवाली चक्षुरिन्द्रिय का विषयरूप ही है। इसलिए इस काव्य को रूपक कहना सर्वथा साभिप्राय है।
__ यों तो रूपकों के भाग, डिम, व्यायोग आदि दस भेद बताये गये हैं तथा 'रूपक' शब्द का विशिष्ट अर्थों में विनियोग किया गया है, किन्तु मेरा तात्पर्य इन सबसे न होकर रूपक काव्य की उस विशिष्ट विधा से है, जिसमें अमूर्त भावों को नाटकीय पात्र के रूप में उपस्थित किया जाता है। इस साहित्य को रूपक-कथा के नाम से भी अभिहित किया गया है। संस्कृत का 'प्रबोधचन्द्रोदय', बनारसीदास का 'मोह-विवेक-युद्ध', पन्तजी की 'ज्योत्स्ना' आदि इसी कोटि की रचनाएँ हैं। इस शैली की रचना को सांकेतिक और अन्योक्ति-शैली की रचना भी कहा गया है। डॉ. दशरथ ओझा इसे प्रतीक नाटक (Allegorical Drama) कहते हैं। रूपक-शैली का विकासात्मक रूप :
रचना की प्रक्रिया में रचनाकार का अनुभूत सत्य कभी-कभी इतना असीम हो जाता है कि भाषा की ससीमता उसे अपने में समाहित करने में असमर्थ हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में कलाकार उस भाषा का प्रयोग करने लगता है, जो रहस्यात्मक होती है और ऊपरी अर्थ से भिन्न अभिप्राय को द्योतित करनेवाली होती है। इस प्रकार की भाषा रूपकात्मक, ध्वन्यात्मक और सांकेतिक होती है। अपनी एक कविता में किसी मरणासन्न महिला के वर्णन के प्रसंग में यीट्स लिखते हैं :
__ * ग्राम व पो. गउडाढ़, जिला : भोजपुर (बिहार)
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