Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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'उत्तराध्ययनसूत्र' में वर्णित संन्यास-धर्म
उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित संन्यासी के निर्दिष्ट आचरण त्याग-भावना से ही अभिप्रेत बताये गये हैं । इस त्याग के भाव को विकसित करने तथा जीवन में चरितार्थ करने की परमावश्यकता है । इसी से समाज में शान्ति, समता तथा न्याय की स्थापना हो सकती है ।
त्याग ही संन्यासी में आन्तरिक पवित्रता उत्पन्न करती है। केवल संन्यासी की वेश-भूषा या बाह्य लिंगों से सम्पन्न होकर संन्यास का प्रवर्तन नहीं हो सकता। बाह्य उपकरण, वेशादि संन्यासी के मात्र सम्प्रदायानुगत अस्तित्व के द्योतक हैं । वे धार्मिक जीवन के साधन तो बन सकते हैं, पर धार्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में उनका महत्त्व सीमित होता है । वास्तविक धार्मिकता तो त्याग में, अनासक्ति में होती है । धार्मिक उपकरणों या रीति-रिवाजों का अपना कोई मूल्य नहीं होता। उनका मूल्य जीवन के सदुद्देश्यों के वाहक के रूप में ही होता है । वे सदा साधन-स्वरूप हैं, कदापि साध्य नहीं । जब उनमें अन्तर्निहित मूल भाव की उपेक्षा कर हम बाह्याडम्बरों को ही प्रमुखता प्रदान करने लगते हैं, तब धर्म का मूल स्वरूप खण्डित हो जाता है तथा समाज में शान्ति और समभाव का विघात हो जाता है ।
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न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ।' तथा - पच्च यत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं ॥
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मोक्ष की वास्तविक साधना तो त्याग में होती है । संन्यास धर्म का सारतत्त्व त्याग ही है, जो 'उत्तराध्ययनसूत्र' ग्रन्थ में अपनी विशिष्ट मौलिकता के साथ विवेचित हुआ
है 1
सन्दर्भ - स्त्रोत :
1.Uttaradhyayanasutra, H. Jacobi (Trans.) SBE Vol. XLV 2. History of Indian Literature, M. Winternitz, p. 466 3. Uttaradhyayanasutra, J. Charpentier (Ed.), p. 32
५. वही ९.४८,
६. वही ८.१६,
८. वही १३.१६,
९. वही ९.५३,
११. वही ८.४,
१४. वही ८.१७,
१७. वही २०.३७,
२०. वही ९.३४,
२३. वही २५.२९,
४. उत्तराध्ययनसूत्र १२.१५,
७. वही १३.१६,
१०. वही ७.२४,
१३. वही ९.१४,
१६. वही १३.३०,
१९. वही १.१५,
२२. वही १.१,
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१२. वही १४.४७,
१५. वही ३२.२,
१८. वही १.१६,
२९. वही ८.१२, २४. वही २३.३२
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