Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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ज़ैनदर्शन का वैशिष्ट्य
विचार-जगत् का अनेकान्त ही नैतिक जगत् में अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है । अतः, जहाँ अन्य दर्शनों में दूसरों के मतों के खण्डन पर ज्यादा जोर दिया गया है, वहाँ जैन दर्शन के मुख्य ध्येय अनेकान्त - सिद्धान्त के आधार पर वस्तुस्थितिमूलक विभिन्न मतों का समन्वय करता रहा है। असल में बौद्धिक स्तर पर इस सिद्धान्त को मान लेने से मनुष्य 'के नैतिक और लौकिक व्यवहार में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है। विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा से जीवन में संकीर्णता या शास्त्रार्थ में अपनी विजय के लिए छल, जल्प और वितण्डा की प्रवृत्तियाँ न होने से समन्वय एवं साध्य की पवित्रता के साथ साधन की पवित्रता का भाव आयेगा । आज विश्व में जाति, धर्म, सम्प्रदायों एवं विचारधाराओं का इतना वैविध्य है कि यदि एक व्यापक मानवीय दृष्टि से अनेकान्त-मूलक समन्वय की दृष्टि नहीं रखी जायेगी, तो फिर सामाजिक जीवन दुःखमय हो जायेगा । अनेकान्त-दृष्टि आचार - साधना में अहिंसा, समाज- साधना में समन्वय और धर्म - साधना
सर्व-धर्म-समभाव के जीवन-मूल्य को स्थापित करेगी और अनेकान्त कोरा दर्शन नहीं है, वह साधना है । एकांगी आग्रह राग-द्वेष से प्रेरित होते हैं । जैसे-जैसे राग-द्वेष क्षीण होता है, वैसे-वैसे अनेकान्तदृष्टि विकसित होती है, और जैसे-जैसे अनेकान्त-दृष्टि विकसित होती है, वैसे-वैसे राग-द्वेष क्षीण होता है। दर्शन सत्य का साक्षात्कार है । राग-द्वेष में फैला व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार कर ही नहीं सकता। दर्शन सत्य की उपलब्धि के लिए एवं सत्य की उपलब्धि शान्ति की उपलब्धि के लिए है। मनुष्य अपनी रागात्मक प्रवृत्तियों के कारण सत्य से कम आकर्षित हुआ और उसके आकर्षण का केन्द्र सत्य के बदले सत्य का संस्थान, यानी सम्प्रदाय बन गया । सम्प्रदाय ने सत्य पर इतने आवरण डाले कि धर्म की सुरक्षा के लिए अधर्म, अहिंसा की सुरक्षा के लिये हिंसा, और सत्य की सुरक्षा के लिये असत्य का आचरण वर्जित नहीं रहा। लेकिन जैन दर्शन सत्य को जानने के लिए अनेकान्त - दृष्टि और अनेकान्त-दृष्टि पाने के लिए राग-द्वेष-रहित आध्यात्मिक जीवन पर जोर देता है ।
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इसीलिए तत्त्व की स्थापना के लिए तर्क को एक सापेक्ष आलम्बन माना गया है 1 स्वकीय अभ्युपगम की स्थापना और परकीय अभ्युपगम के लिए तर्क उसी सीमा तक हो, जिससे परपक्ष को मानसिक आघात न लगे। अपने विचार की पुष्टि अपने लिए नहीं, बल्कि अहिंसा की पुष्टि के लिए है। अहिंसा का खण्डन कर दूसरे के अभ्युपगम का खण्डन करना वास्तव में अपने अभ्युपगम का खण्डन करना है । अतः जैनदर्शन कोई एक दर्शन नहीं, दर्शनों का समुच्चय है । अनन्त दृष्टियों से सह-अस्तित्व को मान्यता देनेवाला कोई एक दर्शन नहीं हो सकता ।
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जैन दर्शन को बहुधा नास्तिक कह दिया जाता है; क्योंकि मनु के 'नास्तिको वेदनिन्दकः' न्याय तथा कर्ता- संहर्ता रूप से ईश्वर जैसी स्वतन्त्र सत्ता को अस्वीकार
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