Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
लौकिक संस्कृत में वैदिक छन्दों से भिन्न प्रणाली का आश्रय लिया जाता है। वैदिक छन्दों की मुख्य दो विशेषताएँ थीं—अक्षर-संख्या का प्राधान्य और स्वरों के उतार-चढ़ाव का नियमन । इसके विपरीत संस्कृत-वर्णवृत्त में निश्चित संख्या में वर्णों को रखकर और वर्ण-संख्या में एक निश्चित क्रम को रखते हुए छन्दों का रचना-विधान निर्मित किया जाता है । लघु-गुरु स्वर के विचार से यथाक्रम वर्गों को रखकर छन्द का निर्माण किया जाना संस्कृत-वृत्तों की विशेषता है। उदाहारणार्थ, आठ गुरु वर्गों को रख देने से 'विद्युन्माला' छन्द बन जाता है। इसी को शास्त्रीय शैली में कहा जाता है : मो मो गो गो विद्युन्माला, अर्थात् दो मगण और दो गुरु वर्गों के योग से यह छन्द निर्मित होता है। अतः निश्चित संख्या में लघु-गुरुवर्णों को एक निश्चित क्रम में संगठित करके और उनमें यथाक्रम वृद्धि के द्वारा विविध छन्दों का निर्माण और रचना-विधि का निर्धारण वार्णिक वृत्तों की मुख्य आधार-शिला है। इस प्रकार के लघु-गुरु के क्रमिक प्रयोग के द्वारा संगीत-सृष्टि की योजना वैदिक छन्दों में नहीं थी।
छन्द में लय, गति और लक्षण-निर्देश की सुविधा को दृष्टि में रखकर संस्कृत के छन्दःशास्त्रियों ने गणों की व्यवस्था की है। तीन वर्गों के नियत क्रमवाले समूह को गण कहते हैं : त्रयाणामक्षराणां समूहो गण उच्यते।१८ आचार्य पिंगल ने 'छन्दःसूत्रम्' के प्रथम दस सूत्रों में आठ गणों एवं लघु-गुरु के स्वरूप का विवेचन किया है । म, भ, ज, स, न, य, र, त-ये आठ वर्ण ही गण हैं।
सर्वगुौं मुखान्तलौ यरावन्तगतौ सलौ। ग्मध्याद्यौज्मौ त्रिलोनोऽष्टौ भवन्त्यत्र गणास्त्रिकाः॥
(वृत्तरलाकर, १.७) इन गणों के द्वारा पादगत वर्ण-संख्या तथा मात्रा-संख्या का बोध सहजरूप में हो जाता है।
छन्दों में गण-प्रयोग के दो रूप मिलते हैं। कुछ छन्द ऐसे होते हैं, जिनमें निश्चित संख्या में गण-व्यवस्था रहती है और उनमें आगे-पीछे कोई भी लघु या गुरु वर्ण नहीं रखा जा सकता। जैसे सवैया छन्द में आठ सगण रहते हैं। इनके द्वारा छन्द में लय एवं प्रवाह का निश्चित क्रम रहता है। यदि इसमें कुछ भी जोड़ दिया जाय, तो छन्द के लय में अन्तर आ जायगा।
गण-प्रयोग का एक दूसरा रूप यह है जिसमें किसी एक ही गण की आवृत्ति नहीं की जाती, वरन् भिन्न-भिन्न गणों को विशेष लय और प्रवाह के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है । जैसे द्रुतविलम्बित में नगण, भगण, भगण और रगण का क्रम रहता है। इसमें भिन्न भिन्न गणों को निश्चित संख्या में एक विशेष क्रम के साथ व्यवस्थित किया
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