Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 253
________________ 224 Vaishali Institute Research Bulletin No.8 तथा आत्मा क्रमशः विकास को प्राप्त होती है। जैन आचार-संहिता की तीन कोटियाँ मानी गई हैं। -(१) बहिरात्मा', जो शरीर को ही आत्मा समझता हुआ सांसारिक विषयों में लीन रहता है, (२) 'अन्तरात्मा', जो शरीर और आत्मा के भेद को समझता है तथा शरीर के मोह को छोड़कर आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, तथा (३) 'परमात्मा' जिसने आत्मा के सच्चे स्वरूप को जान लिया है और जो अनन्त ज्ञान तथा सुख का धनी है। यथा : अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरप्पा हु अप्पसंकप्यो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्या भण्णए देवो॥२ आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के इस विकास-मार्ग का प्रतिपादन किया था।२४ जिसका अनुगमन अन्य जैनाचार्यों ने किया है। अन्य भारतीय दर्शनों में भी आत्मा के विकास के इन स्वरूपों को विभिन्न नामों से वर्णित किया गया है। उपनिषदों में आत्मा के ज्ञानात्मा, महदात्मा और शुद्धात्मा ये तीन भेद किये गये हैं। दूसरे शब्दों में शरीरात्मा; जीवात्मा और परमात्मा भी आत्मा की अवस्थाएँ बताई गई हैं। परमतत्त्व के नाम एवं गुण : जैन धर्म में परमतत्त्व मुक्त आत्मा को माना गया है। उनकी अवस्थाओं और गुणों के कारण उन्हें अर्हन्त, सिद्ध, केवली, जिन, तीर्थंकर, आप्त, सर्वज्ञ, परमात्मा, वीतराग आदि नामों से जाना जाता है। इन सबमें प्रमुख गुण समान हैं कि वे मुक्त अवस्था में होने के कारण सभी दुःखों से रहित हैं। उनमें १००८ लक्षण शास्त्रों में गिनाये गये हैं। किन्तु उनके ४ प्रमुख गुण-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र एवं अनन्त वीर्य प्रसिद्ध हैं। इन गुणों के साथ तुलना करने पर ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म के ईश्वर, ब्रह्म या परमात्मा में भी ज्ञान, शक्ति, माहात्म्य, गौरव आदि गुण स्वीकार किये गये हैं। क्योंकि, ईश्वर की उपास्यता बिना गुणों के हो नहीं सकती है। पाश्चात्य दर्शनों में भी ईश्वर को व्यक्तित्वपूर्ण, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, पूर्णज्ञान, इच्छज्ञ स्वातन्त्र्य, नित्य एवं शुभत्व आदि गुणों से युक्त मानने की बात कही गयी है। यद्यपि ईश्वर-सम्बन्धी गुणों का कथन असंज्ञानात्मक ही होता है,८ तथापि भारतीय दर्शनों में ईश्वर को अपरमित गणों का भाण्डार माना गया है। जैन ग्रन्थों में भी तीर्थंकर के कई अतिशय उनकी विशिष्टता के रूप में वर्णित हैं।२९ कुछ जैन ग्रन्थों में परमात्मा के गुणों का वर्णन अभावात्मक दृष्टि से भी किया गया है। मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न कृष्ण है, न श्वेत है, न गुरु है, न लघु है, न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है ।२° अतः परमात्मा का स्वरूप अनिर्वचनीय है। शांकर सिद्धान्त का नेति-नेति और पाश्चात्य विचारक अक्वाइन का नकारात्मक सिद्धान्त१ जैन दर्शन के अभावात्मक दृष्टिकोण से समानता रखते हैं । इनसे यह अनुभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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