Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनधर्म के पंचमहाव्रत : आज के सन्दर्भ में
डॉ. अवधेश्वर अरुण
'जि' का अर्थ होता है— विजय । अतः जिन का अर्थ होगा — विजय प्राप्त करनेवाला | विजय दो तरह की होती है – (१) दूसरों पर विजय, (२) अपनों पर विजय । दूसरों पर विजय युद्ध और हिंसा से प्राप्त होती है, जबकि अपने पर विजय संयम से । जैन दर्शन आत्मविजय का दर्शन है। इसकी परिणति मुक्ति या मोक्ष में होती है ।
कोई भी दर्शन अपने सिद्धान्त में विचार-प्रधान होता है और व्यवहार में मानव - मात्र की कल्याण - कामना से प्रेरित। मानव की कल्याण-कामना से प्रेरित आचार-विचार की सरण पर चलनेवाला धर्म-चिन्तन किसी भी देश या काल में न तो अप्रासंगिक होता है और न ही उपेक्षित । जैन धर्म के साथ भी यही स्थिति है । वह न तो आज के युग के लिए अप्रासंगिक है और न ही उपेक्षणीय । यह ठीक है कि धर्म के रूप में जैन धर्म को मानने वाले की संख्या कम है, लेकिन जिन मूल्यों पर यह धर्म आधारित है, वे मूल्य किसी भी देश और काल में मनुष्य मात्र के लिए ग्राह्य और लाभकारी हैं ।
आज का युग दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । प्रथम विज्ञानवाद की दृष्टि से और द्वितीय अर्थवाद की दृष्टि से । विज्ञानवाद ने सारे विश्व की चिन्तन- दृष्टि को व्यापक तौर पर प्रभावित किया है । अन्ध आस्था और भावुकता से प्रेरित जीवन-दृष्टि बहुत दूर तक कुण्ठित हुई है और उसकी जगह सोचने-समझने की तर्कपूर्ण वस्तुवादी दृष्टि विकसित हुई है । जीवन-जगत् के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती अनेक धारणाएँ परिवर्तित हुई हैं और सब मिलाकर एक यथार्थपरक बुद्धिवादी दृष्टिकोण बहुत हदतक स्थापित हुआ है। इसके कारण आधुनिक युग में जीवन जीने की कला भी बहुत हद तक बदल गई है ।
अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति से उत्पन्न बुद्धिवादी दृष्टि ने आधुनिक जीवन को अर्थप्रिय बना दिया है और आज के जीवन में हाहाकार, आपाधापी, हिंसा, असन्तोष और बेचैनी का मूल कारण विज्ञान - पोषित अर्थवाद है । लेकिन जब विज्ञान नहीं था, तब भी इस देश में 'खाओ, पियो, मौज करो' का चार्वाकी दर्शन उदित हुआ था । इसके अतिरिक्त 'सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति' जैसी उक्तियाँ भी प्रचलित थीं और जीवन को चार पुरुषार्थों में समेटनेवाला आर्ष दर्शन भी अर्थ को एक महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ मानता था । अतः आधुनिक अर्थवाद को विज्ञानवाद की उपज मानना संगत नहीं है । अर्थवाद एक शाश्वत सत्य है । मेरी दृष्टि में संसार में आज जितनी क्षुद्रता, लोलुपता,
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