Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
ऐकान्तिक हैं। किन्तु जैन दृष्टि अनैकान्तिक है। इसी सत्य को ऋग्वेद में भी मुखरित किया गया है :
_ 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।'
यों, एक प्रकार से बौद्ध एवं अद्वैत दर्शन ने सत्ता के स्तर पर प्रकारान्तर से अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार किया है। जैसे माध्यमिक बौद्धों ने परमार्थ, लोक-संवृति और अलोक-संवृति ये तीन अवस्थाएँ मानी हैं। जिस शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के 'नैकस्मिन् असम्भवात्' सूत्र के भाष्य में अनेकान्तवाद-स्याद्वाद पर प्रखर प्रहार किया है, वहीं वह स्वयं तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में परमार्थ, व्यवहार एवं प्रतिभास-सत्य की तीन अवस्थाएँ मानकर स्याद्वाद-दृष्टि का अधिक से अधिक प्रयोग करनेवाले चिन्तक सिद्ध हुए। आधुनिक युग में आइन्स्टीन का सापेक्षवाद और डेलरेपी जैसे दार्शनिकों का द्वादशभंगी दृष्टिकोण हमारे सामने है। इस दृष्टि से जैनों की अनेकान्त-दृष्टि दर्शन की सबसे निर्दोष विधा है, जो किसी ऐकान्तिक दृष्टि-विशेष से आबद्ध नहीं है।
इस अनेकान्तवाद की भूमिका साम्य-दृष्टि में है। साम्य-दृष्टि का जैन-परम्परा में वही महत्त्व है, जो ब्राह्मण-परम्परा में ब्रह्म का। श्रमण-धर्म की प्राणभूत साम्यभावना (सामाइय= सामयिक) का प्रथम स्थान है, जो आचारांग-सूत्र कहलाता है और जिसमें भगवान् महावीर के आचार-विचार का सीधा एवं स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। यह धार्मिक जीवन स्वीकार करने की गायत्री है, जब गृहस्थ या त्यागी कहता है- 'करेमि भंते सामाइयं'। इसके दूसरे सूत्र में सावधयोग है, जिसमें पाप-व्यापार के त्याग का संकल्प है। यह साम्य-दृष्टि विचार एवं आचार दोनों में प्रकट हुई है । विचार में साम्यदृष्टि से ही अनेकान्तवाद का आविर्भाव हुआ। केवल अपनी दृष्टि को पूर्ण एवं अन्तिम सत्य मानकर उसपर आग्रह रखना साम्यदृष्टि के लिए घातक है। इसलिए यह माना गया है कि दूसरों की दृष्टि का उतना ही आदर करना चाहिए, जितना अपनी दृष्टि का। यही साम्यदृष्टि अनेकान्त की भूमिका है। इसी से भाषाप्रधान स्याद्वाद एवं विचारप्रधान नयवाद का क्रमशः विकास हुआ है। जैनेतर दार्शनिक भी अनेकान्त-भावना को स्वीकार करते हैं, लेकिन जैन दर्शन की यही विशेषता है कि उसने अनेकान्त का स्वतन्त्र शासन ही रच डाला। जैन दर्शन का बाह्य-आभ्यन्तर, स्थूल-सूक्ष्म सब आचार साम्यदृष्टिमूलक अहिंसा के आसपास ही निर्मित हुआ है। जिस आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा या पुष्टि न होती हो, ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्यता नहीं देती। इसलिए अहिंसा को यहाँ इतना व्यापक एवं गम्भीर बताया गया। अहिंसा केवल मानव-धर्म के रूप में नहीं, बल्कि मानवतेर यानी पशु-पक्षी,कीट-पतंग और वनस्पति तथा जैवीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने के लिए कहा गया है।
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