Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
जैनधर्म के पंचमहाव्रत : आज के सन्दर्भ में
209
मैं भी हूँ सोचता जगत से कैसे उठे जिधिंसा किस प्रकार फैले धरती पर करुणा, प्रेम, अहिंसा जिये मनुज किस भाँति परस्पर होकर भाई भाई? कैसे रुके प्रवाह द्रोह का कैसे रुके लड़ाई।
(दिनकर) जैनधर्म इसका एक ही उत्तर देता है—अहिंसा को अपना कर : हिंसक वृत्ति को । समाप्त कर।
जैनधर्म का दूसरा महावत है सत्य । सत्य बोलने से तात्पर्य है-अनृत, अर्थात् प्रिय और हितकर सत्य बोलना। इस सम्बन्ध में संस्कृत का यह सुभाषित मानों पुकार-पुकार कर जैनधर्म के इस महाव्रत के पालन की प्रेरणा दे रहा है:
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्
न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्। प्रिय सत्य बोलना या कटु सत्य को भी मनोरम बनाकर बोलना व्यावहारिक जीवन में कितना उपयोगी है, यह सभी जानते हैं। यदि प्रिय सत्य बोलने के व्रत को मनुष्य अपने जीवन में उतार ले तो वह उग्रता, क्रोध, विरोध, कटुता और इनसे होनेवाले सारे दुष्परिणामों से मुक्ति पा जाये। व्यावहारिक जीवन में अधिकतर झगड़े और उनकी हिंसात्मक परिणति कटु भाषण से ही होती है। यदि हम वाणी पर संयम रख सकें और वाणी में माधुर्य घोलकर उसकी कड़वाहट कम कर सकें, तो स्वतः भी शीतल रहें और दूसरों को भी शीतल कर दें। अतः यह महाव्रत पूर्णतः लोकोपयोगी और व्यावहारिक है।
जैन दर्शन का तीसरा महाव्रत है—अस्तेय। इसका अर्थ है-चोरी न करना। आज के युग में चोरी की पुरानी रीतियों के अतिरिक्त एक नई रीति विकसित हुई है-भ्रष्टाचार । इस देश के अधिकांश क्षेत्र में, जो कहीं पर अधिकारी हैं या कर्मचारी हैं; वे या तो कामचोरी कर रहे हैं अथवा अपने पद का दुरुपयोग कर राष्ट्रीय सम्पदा से अपना घर भर रहे हैं। यह सीधी चोरी है। पता नहीं, इस नये प्रकार की चोरी से भगवान् महावीर का प्रयोजन था या नहीं। लेकिन आज विदेशों से आनेवाले कर्ज की चोरी इसी शैली में हो रही है। विकास कार्यों पर व्यय होनेवाली राशि का अधिकांश कमीशन के रूप में भ्रष्ट अधिकारियों की जेब में चला जा रहा है। अभी कुछ महीनों से हमारे देश का आर्थिक जगत् जिन बैंक घोटालों से उद्वेलित रहा है, वह चोरी का ही एक बौद्धिक नमूना है। तस्करी, घोटाला, कमीशन, घूस, पद का दुरुपयोग आदि तरीकों से धनी बन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org