Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन एवं हिन्दू धर्म में परमतत्त्व की अवधारणा
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उपरान्त ही होता है, ऐसा अधिकांश भारतीय दार्शनिक मानते हैं। अतः परमसत्ता, मोक्ष
और निर्वाण प्रायः एक ही लक्ष्य के विभिन्न नाम हैं। मोक्ष-सम्बन्धी समानताएँ :
मोक्ष के स्वरूप का विकास भारतीय धर्मों में क्रमशः हुआ है। चार्वाक ने शरीर के अन्त को ही मोक्ष माना। न्याय-वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और वैभाषिकों ने आत्मा के आगन्तुक धर्मों-चेतना और आनन्द आदि की मुक्ति को ही मोक्ष स्वीकार किया। सौत्रान्तिक बौद्धों ने सत्ता की अभिव्यक्तियों के निरोध को ही 'निर्वाण' कहा है। सांख्य पुरुष की सत्ता और चेतन अवस्था के वास्तविक स्वरूप को जान लेने को ही कैवल्य (मोक्ष) कहते हैं। वे उसमें आनन्द की अनुभूति नहीं मानते। जैन दार्शनिक आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष मानते हैं। उसमें मुक्त जीव अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख
और अनन्त वीर्य का स्वामी होता है। ऐसे मुक्त जीव अनन्त होते हैं । वेदान्त दर्शन के अनुसार मुक्त आत्मा ईश्वर के समान बनकर उसके शरीर में प्रवेश कर उससे एकाकारता का अनुभव करती है । ज्ञान और आनन्द के उपभोग में मुक्त आत्मा ईश्वर के समान होती है। शंकर के वेदान्तदर्शन में मुक्त जीव परमतत्त्व ब्रह्म से अभिन्न हो जाता है। इन सभी दर्शनों की मुक्ति प्रक्रिया का यदि सूक्ष्म विवेचन किया जाय, तो ज्ञात होगा, कि प्रायः सभी ने मुक्ति की प्राप्ति के लिए अज्ञान को दूर कर आत्मज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक माना है और मुक्तिप्राप्ति के बाद जीवन-मरण के चक्र और दुःखों का अन्त स्वीकार किया है।
__ भारतीय दर्शनों में मुक्ति के सम्बन्ध में एक समानता यह भी मिलती है कि प्रायः सभी ने जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति इन दो को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। गीता और वेदान्त की परम्परा में राग-द्वेष और आसक्ति की पूर्ण रूप से समाप्ति पर जीवन्मुक्ति और ऐसे साधक के शरीर छूट जाने पर विदेहमुक्ति की प्राप्ति माना गया है। बौद्ध दर्शन में तृष्णा के क्षय के बाद सोपाधिशेष निर्माण धातु की प्राप्ति होती है
और शरीर छूटने के बाद अनुपाधिशेष निर्वाण धातु की। जैन दर्शन में राग-द्वेष से मुक्ति को भावमोक्ष और शरीर छूटने के बाद की मुक्ति को द्रव्यमोक्ष कहा गया है। गीता में जीवन्मुक्त अवस्था के साधक को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है और वेदान्त में उसे 'जीवात्मा' नाम दिया गया है । बौद्ध दर्शन में जीवन्मुक्त साधक 'अर्हत्', केवली, उपशान्त आदि नामों से जाना जाता है। जैन दर्शन में ऐसे जीवन्मुक्त साधक को 'अर्हत्', वीतराग, केवली आदि कहा गया है। ये सभी साधक राग-द्वेष से रहित, समता-धारक एवं जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करनेवाले कहे गये हैं। इस अवस्था से आगे की मुक्त आत्माएँ, जो सर्वथा कर्मों से मुक्त हो गई हैं और जिन्होंने अपने शरीर आदि सभी
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