Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न जनमता है और न मरता है। अथवा न यह हो करके फिर होनेवाला है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥" __ अर्थात्, जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥५ अर्थात् आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है, तथा इसको जल नहीं गीला कर सकता है, और वायु नहीं सुखा सकता है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ अर्थात् यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है, तथा यह निःसन्देह नित्य सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।
कठोपनिषद् में कहा गया है—“यदिदं किंच जगत्सर्वम् प्राण एजति निस्सृतम् ।” अर्थात् जो कुछ भी इस सम्पूर्ण संसार में है, वह प्राणों के ही कम्पनों की अभिव्यक्ति है। तैत्तिरीय उपनिषद् कहती है—'प्राणा हि भूतानामायुः' । अर्थात्, प्राण ही प्राणियों की आयु है।
अतः वैदिक एवं ईश्वरवादी दर्शन, सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर अथवा परमात्मा की सत्ता को स्वीकारते हुए पुनर्जन्म एवं आत्मा की अविनश्वरता में विश्वास व्यक्त करता है। बौद्ध दर्शन :
बौद्ध दर्शन आत्मवादी है या अनात्मवादी? इसमें एक ओर जहाँ आत्मवाद या जीव की सत्ता को मिथ्यादृष्टि कहा गया है, जीवन के प्रकाश को नदी की धारा के समान घटना-प्रवाह-रूप बतलाया गया है एवं निर्वाण को दीपक की उस लौ से उपमा दी गई है, जो आकाश, पाताल तथा अन्य दिशा-विदिशा में न जाकर केवल बुझकर समाप्त हो जाता है। दूसरी ओर यह भी स्वीकार किया जाता है कि जीवन में ऐसा भी कोई तत्त्व है, जो जन्मजन्मान्तरों से होता हुआ चला आ रहा है, जो शरीर-रूपी घर का निर्माण
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