Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जटासिंहनन्दी का 'वरांगचरित' और उसकी परम्परा
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३.५५
२६.७०
३.५४ २६.७१ २६.७२
३.५३ २६.७८
३.६९ २६.९०
३.६९ २६.९९
३.६७ २६.१००
३.६८ वरांगचरितकार जटासिंहनन्दी द्वारा सिद्धसेन का यह अनुसरण इस बात का सूचक है कि वे सिद्धसेन से निकट रूप से जुड़े हुए हैं। सिद्धसेन का प्रभाव श्वेताम्बरों के साथ-साथ यापनीयों और यापनीयों के कारण पुत्राटसंघीय आचार्यों एवं पंचस्तूपान्वय के आचार्यों पर भी देखा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दी उस यापनीय अथवा कूर्चक-परम्परा से सम्बन्धित रहे होंगे, जो अनेक बातों में श्वेताम्बरों की आगमिक परम्परा के निकट थी । यदि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्वज आचार्य हैं, तो यापनीय आचार्यों के द्वारा उनका अनुसरण सम्भव है। - यद्यपि 'वरांगचरित' के इसी सर्ग की निम्न दो गाथाओं पर समन्तभद्र का प्रभाव देखा जाता है, किन्तु सिद्धसेन की अपेक्षा यह प्रभाव अल्प मात्रा में है। "
(७) 'वरांगचरित' में अनेक संदर्भो में आगमों, प्रकीर्णकों एवं नियुक्तियों का अनुसरण किया गया है । सर्वप्रथम तो उसमें कहा गया है-'उन वरांगमुनि ने अल्पकाल में ही आचारांग
और अनेक प्रकीर्णकों का सम्यक् अध्ययन करके क्रमपूर्वक अंगों एवं पूर्वो का अध्ययन किया'।२६ इस प्रसंग में प्रकीर्णकों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । विषयवस्तु की दृष्टि से तो इसके अनेक सर्गों में आगमों का अनुसरण देखा जाता है। विशेषरूप से स्वर्ग, नरक, कर्म-सिद्धान्त आदि सम्बन्धी विवरण में 'उत्तराध्ययनसूत्र' का अनुसरण हुआ है। जटासिंहनन्दी ने चतुर्थ सर्ग में जो कर्म-सिद्धान्त का विवरण दिया है, उसके अनेक श्लोक अपने प्राकृत रूप में उत्तराध्ययन के तीसवें कर्मप्रकृति' नामक अध्ययन में यथावत् मिलते हैं : उत्तराध्ययन
वरांगचरित ३०.२-३
४.२-३ ३०.५-६
४.२४-२५ ३०.८-९
४.२५-२६-२७ ३०.१०-११
४.२८-२९ ३०.१२
४.३३ (आंशिक) ३०.१३
४.३५ (आंशिक) ३०.१५
४.३७
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