Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
के कारण ही मनुष्य इस संसार में दुःख पाता है और वह साधु की कृपा से ही ज्ञान प्राप्त कर दुःखमुक्त हो सकता है।
पाँचवीं 'कथा' (राहुगपुव्वभवकहा : २५०.९) पीठिका-प्रकरण में प्रद्युम्न के पूर्वभव की कथा के सम्बन्ध में उपन्यस्त की गई है। इसमें जबरदस्ती गूंगा बने राहुक के विभिन्न पूर्वभवों की विचित्रता की कथा कही गई है। सत्यवादी सत्य नामक साधु के उपदेश से ही उसे आत्मस्वीकृत गूंगेपन से छुटकारा मिला। कथाकार ने पूर्वभव की सिद्धि के क्रम में इस कथा का विनियोग किया है।
छठी कथा (परलोगपच्चए धम्मफलपच्चए य सुमित्ताकहा : ३४६.१३) को शरीर-प्रकरण में उपस्थित किया गया है। इसमें भी परलोक और धर्मफल के अस्तित्व की सिद्धि के लिए वाराणसी के राजा हतशत्रु की पुत्री सुमित्रा के बाल्यभाव में ही पूर्वजन्म के स्मरण हो आने का रोचक वृत्तान्त उपन्यस्त किया गया है।
सातवीं 'कथा' (आइच्चाइमुणिचउक्ककहा : ८९१.१) अट्ठारहवें प्रियंगुसुन्दरीलम्भ में आई है। इसमें एक मुनि ने रमणीय ग्राम के ग्रामस्वामी देवदत्त से सारस्वत, आदित्य, वह्नि और वरुण नामक मुनियों के ब्रह्मलोक से च्युत होकर दक्षिणार्द्ध भारत के यथाक्रम ऋषभपुर, सिंहपुर, चक्रपुर तथा गजपुर नामक नगरों में आदित्य, सोमवीर्य, शत्रूत्तम और शत्रुदमन राजाओं के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण करने की कथा कही है। यह कथा भी पूर्वभव और परभव के सम्बन्धों की विचित्रता को बताने के उद्देश्य से ही गुम्फित की गई है। इस प्रकार उपरिवर्णित सातों खण्डकथाएँ विशुद्ध धर्मकथा की कोटि में आती हैं, इसलिए कथाकार ने इन्हें 'कथा' की संज्ञा प्रदान की है।
__ कथाकार ने 'सम्बन्ध' या 'कथासम्बन्ध'-संज्ञक अनेक कथाएँ उपन्यस्त की हैं, जिनकी संख्या लगभग पैंतीस है। इस कथाग्रन्थ की खण्डकथाओं में ‘सम्बन्ध-संज्ञक कथाएँ सर्वाधिक हैं और इनकी विविधता और बहुलता भी मिलती है। ये कथाएँ 'कथा'
और 'विकथा', अर्थात् धर्मकथा और कामकथा और फिर अर्थकथा तथा मिश्रकथा के रूपों में वर्गीकृत की जा सकती हैं। 'सम्बन्ध' या 'कथासम्बन्ध'-संज्ञक प्रायः सभी कथाएँ अपने नाम की अन्वर्थता के अनुसार, कहीं कथा के पूर्वापर-सम्बन्ध को जोड़ने के लिए प्रस्तुत की गई हैं, तो कहीं मूलकथा के प्रसंग में , कथाविस्तार के निमित्त विनियोजित हुई हैं। कुल मिलाकर, 'सम्बन्ध'-संज्ञा से संवलित प्रायः सभी कथाओं का संगुम्फन विभित्र कथा-पात्रों और पात्रियों के पूर्वभव और परभव के परस्पर सम्बन्ध और उनके कार्यों की विचित्रता और विलक्षणता के प्रदर्शन के लिए किया गया है।
संघदासगणी ने अपनी बृहत्कथाकृति में ‘दृष्टान्त'-संज्ञक कथाओं का भी विन्यास किया है । यथाविन्यस्त दृष्टान्त-कथाएँ संख्या की दृष्टि से कुल दो ही हैं : 'विसयसुहोवमाए
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