Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनधर्म के तीर्थंकर, आचार्य और वाङ्मय
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में अतिशय चर्चित मक्खलि गोशाल है, जिसने आगे चलकर आजीवक-सम्प्रदाय की स्थापना की। वर्धमान-महावीर के धर्मप्रचार में जिन लोगों ने सहयोग दिया, उनका शिष्यत्व स्वीकार किया, उनके नाम इस प्रकार हैं : (१) आनन्द, (२) कामदेव, (३) चुलनीपिया, (४) सुरदेव, (५) चुल्लशतक, (६) सद्दालपुत्र (८) महाशतक (९) नन्दिनीपिया और (१०) साल्ही । ई. पूर्व ५४६ में ७२ वर्ष की आयु में वर्धमान महावीर का देहावसान हुआ। इनके देहावसान के पश्चात् इनके प्रमुख शिष्यों में आर्य सुधर्मा ही जीवित थे, जो जैनधर्म के स्थविर हुए। महावीरस्वामी के जीवनकाल में इनके दामाद जमालि ने तथा जैनभिक्षु तीसमुत्त ने कुछ उपद्रव किया था। महावीरस्वामी के जीवनकाल में इनके धर्म का प्रचार मगध, वैशाली और अंग में व्यापक रूप से हुआ। इस काल में अनेक धर्मों-जैसे (१) बार्हस्पत्य, (चार्वाक), (२). बौद्ध, (३) वेदान्त, (४) सांख्य, (५) अपृष्टनादीय, (६) आजीवक, (७) त्रैराशिक, (८) शैव, (९) पूरणकश्यपीय, (१०) मक्खलिगोशालीय, (११) अजितकेशकम्बलिन् का सम्प्रदाय एवं (१२) पकुध काच्चायन का सम्प्रदाय का प्रचलन था। वर्धमान महावीरस्वामी के बाद जैनधर्म के आचार्य एवं आरम्भिक जैनग्रन्थ :
___ महावीरस्वामी के बाद आर्य सुधर्मा आचार्य हुए। इन्होंने महावीर के मुँह से जैसा सुना था, वैसा ही अंगों और उपांगों का सम्पादन किया। स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के अनुसार जैनों के प्रमाणभूत धार्मिक वाङ्मय में ११ अंग, १२ उपांग, छेदग्रन्थ, और ४ मूल ग्रन्थ हैं। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार १० पयन्ना, १२ नियुक्ति, ९ विविध मिलाकर कुल ८४ ग्रन्थ हैं, परन्तु दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार सभी ग्रन्थों में कुल चार अनुभाग ग्रन्थ ही प्रामाणिक हैं। उपर्युक्त ८४ ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं हैं। श्रीजयचन्द्र विद्यालंकार ने यह मत व्यक्त किया है कि जैन वाङ्मय के. अंगों का विन्यास वेदांगों की परम्परा की तरह वेदांगों की रचना के काल में या ठीक उसके बाद हुआ था । ___जैनाचार्य सुधर्मा का देहावसान ई. पूर्व ५०८ में हुआ। इनके बाद आचार्य हुए जम्बूस्वामी, जिनका देहावसान ई. पूर्व ४६४ में हुआ। जम्बूस्वामी के बाद आचार्य हुए प्रभव और प्रभव के बाद स्वयम्भव । आचार्य स्वयम्भव ने दशवैकालिक नामक ग्रन्थ की रचना की । आचार्य स्वयम्भव का समय नवनन्द युग के आरम्भ का है। इनके उत्तराधिकारी हुए आचार्य यशोभद्र, फिर आचार्य यशोभद्र के आचार्य सम्भूतविजय और आचार्य सम्भूतविजय के आचार्य भद्रबाहु जो सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (ई. पूर्व ३२४) के समकालीन थे। आरम्भिक जैनग्रन्थों में एक नियुक्ति आचार्य भद्रबाहु की लिखी हुई कही गई है। परन्तु इस ग्रन्थ में ई. पूर्व पहली शती तक की स्थितियों का उल्लेख होने
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