Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन दर्शन में आत्मतत्त्व : एक विश्लेषण
करता है, शरीर-धारण को दुःखमय पाता है और छूटने का उपाय सोचता है और प्रयत्न करता है । चित्त को संस्कार - रहित बनाता है और तृष्णा का क्षय कर निर्वाण प्राप्त करता है । इससे ज्ञात है कि बौद्ध दर्शन ने भी 'आत्मतत्त्व' की सत्ता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकारा है ।
जैन दर्शन में आत्मतत्त्व :
जैनदर्शन में आत्मतत्त्व (जीवतत्त्व) पर विशेष रूप से विचार किया गया है । आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में सात तत्त्वों का वर्णन किया है :
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जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । जैनदर्शन में इन्हीं सात तत्त्वों का निर्देश किया गया है । इसमें पुण्य एवं पाप को मिलाकर नौ पदार्थ कहे जाते हैं । ' कहने का तात्पर्य है कि तत्त्वार्थ (तात्त्विक अर्थ ) सात है । जीव एवं अजीव स्वतन्त्र तथा अनादि-अनन्त तत्त्व है। पर, अन्य पाँच न जीवाजीव की तरह स्वतन्त्र है और न अनन्त एवं अनादि, तो फिर इन्हें तत्त्व की संज्ञा क्यों दी जाती है ?
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वस्तुतः यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ अनादि, अनन्त और स्वतन्त्र भाव नहीं है, बल्कि मोक्ष प्राप्ति में उपयोगी होनेवाला ज्ञेय भाव है। जीवन का चरम उद्देश्य मोक्ष होने से, मोक्ष जिज्ञासुओं के लिए जिन वस्तुओं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है, वे ही वस्तुएँ यहाँ तत्त्व रूप में वर्णित हैं । मोक्ष तो मुख्य साध्य ही है । इसलिए उसको तथा उसके कारण को जाने बिना मुमुक्ष की प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती । मुमुक्षु को यह जान लेना जरूरी है कि अगर वह मोक्ष का अधिकारी है, तो उसमें पाया जानेवाला सामान्य स्वरूप किस -किसमें है और किसमें नहीं है, इसी ज्ञान की पूर्ति के लिए सात तत्त्वों का निर्देश है :
(१) जीव - जिसमें चेतना हो, वह जीव है, अर्थात् जो चेतना-गुण से युक्त हो अथवा जो ज्ञान और दर्शन - रूप उपयोग को धारण करनेवाला है, उसको जीव कहते हैं । चेतना के तीन गुण हैं : ज्ञान-चेतना, कर्म-चेतना, कर्मफल- चेतना ।
(२) अजीव - अचेतन को अजीव कहते हैं, अर्थात् जिसमें चेतना या ज्ञातृत्व नहीं है, वह अजीव है। अजीव तत्त्व पाँच प्रकार के हैं— धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और
काल ।
(३) आस्रव - शुभ या अशुभ कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं ।
(४) बन्ध— आत्मा का अज्ञान, राग, द्वेष, पुण्य और ताप के भाव में रुक जाना ही भावबन्ध है ।
(५) संवरपुण्य-पाप के विकारी भाव को आत्मा के शुद्ध भाव द्वारा रोकना भावसंवर
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