Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
और क्षपक-श्रेणी से आरोहण की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए भी यह माना है कि उपसम-श्रेणीवाला क्रमशः ८३, ९वें एवं १०वें गुणस्थान से होकर ११वें गुणस्थान में जाता है, जबकि क्षपक श्रेणी वाला क्रमशः ८वें, ९वें एवं १०वें गुणस्थान से सीधा १२वें गुणस्थान में जाता है जबकि उमास्वाति यह मानते प्रतीत होते हैं कि चाहे दर्शन-मोह के उपशम और क्षय का प्रश्न हो या चारित्र-मोह के उपशम या क्षय का प्रश्न हो—पहले उपशम होता है और फिर क्षय होता है । दर्शन-मोह के समान चारित्र-मोह के भी क्रमशः उपशम, उपशान्त, क्षपक और क्षय होता है। उन्होंने उपशम और क्षय को मानते हुए उनकी अलग-अलग श्रेणी का विचार नहीं किया है। उमास्वाति की कर्म-विशुद्धि की दस अवस्थाओं में प्रथम पाँच का सम्बन्ध दर्शनमोह के उपशमन और क्षपण से है तथा अन्तिम पाँच का सम्बन्ध चारित्र-मोह के उपशमन, उपशान्त, क्षपण और क्षय से है। प्रथम भूमिका में सम्यक् दृष्टि उपशम से सम्यक् दर्शन प्राप्त करता है- ऐसे उपशम सम्यक् दृष्टि का क्रमशः २ श्रावक और ३ विरत के रूप में चारित्रिकं विकास तो होता है किन्तु उसका सम्यक् दर्शन औपशामिक होता है, अतः वह उपशान्त दर्शनमोह होता है। ऐसा साधक चौथी अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षपण (वियोजन) करता है, अतः वह क्षपक होता है, इस पाँचवीं स्थिति के अन्त में दर्शनमोह का क्षय हो जाता है। छठी अवस्था में चारित्र-मोह का उपशम होता है अतः वह उपशमक (चारित्र-मोह) कहा जाता है। सातवीं अवस्था में चारित्र-मोह उपशान्त होता है। आठवीं में उस उपशान्त चारित्र-मोह का क्षपण किया जाता है, अतः वह क्षपक होता है। नवी अवस्था में चारित्र-मोह क्षीण हो जाता है, अतः क्षीण-मोह कहा जाता है, और दसवीं अवस्था में 'जिन' अवस्था प्राप्त होती है। .
इस प्रकार, हम देखते हैं कि उमास्वाति के समक्ष कर्मों के उपशम और क्षय की अवधारणा उपस्थिति रही होगी, किन्तु चारित्र-मोह की विशुद्धि के प्रसंग में उपशम-श्रेणी
और क्षायिक-श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की अवधारणा विकसित नहीं हो पाई होगी। इसी प्रकार उपशम-श्रेणी से किये गये आध्यात्मिक विकास से पुनः पतन के बीच की अवस्थाओं की कल्पना भी नहीं रही होगी।
जब हम उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से कसायपाहुड की ओर आते हैं, तब दर्शनमोह की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र-मोह) और सम्यक् दृष्टि तथा चारित्रमोह की अपेक्षा से अविरत, विरताविरत और विरत की अवधारणाओं के साथ उपशम और क्षय की अवधारणाओं की उपस्थिति भी पाते हैं । २२ इस प्रकार, कसायपाहुड में सम्यक् मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अधिक पाते हैं। इसी क्रम में आगे मिथ्यादृष्टि सास्वादन और अयोगी केवली की अवधारणाएँ जुड़ी होंगी और उपशम एवं
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