Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
___स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में छन्दों के विवेचन का प्रथम प्रयास पिंगल के 'छन्दःसूत्रम्' में उपलब्ध होता है। भारतीय परम्परा में कृतज्ञतावश इस शास्त्र-विशेष का नाम ही पिंगलशास्त्र रख दिया है। पिंगल के 'छन्दःसूत्रम्' में छन्दों के विवेचन के लिए जिस
वैज्ञानिक प्रणाली का आश्रय लिया गया है, उससे स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि यह ग्रन्थ एक चली आती हई परम्परा का चरमतम विकास है, किन्तु दुःख है कि इसके पहले की कोई भी कृति आज उपलब्ध नहीं है। अपनी विशिष्ट महत्ता के कारण ही पिंगल के ग्रन्थ को छह वेदांगों में परिगणित किया गया है। छन्दःशास्त्र को गणितीय पद्धति पर आश्रित करना पिंगल की विशषताओं में एक है। अपने युग तक प्रचलित विविध छन्दों की प्रकृति का पूरा ज्ञान पिंगल को था। प्राकृत-युग में जिस गाहा छन्द को अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई, उसका भी नामोल्लेख पिंगल ने किया है । सम्भवतः यह लोकछन्द था, जिसकी उपेक्षा आचार्यों ने की थी, किन्तु पिंगल की लोकग्राहिणी दृष्टि ने उसे पहचान लिया और उसका उल्लेख अपने ग्रन्थ में किया। पिंगल की महत्ता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि प्रायः सभी परवर्ती कवियों एवं लक्षणकारों ने पिंगल का ऋण स्वीकार किया है। छन्दःशास्त्रीय अध्ययन की दिशा में भरत (२०० ई. पूर्व)-कृत नाट्यशास्त्र, वराहमिहिर (छठी शती)-कृत बृहत्संहिता, नारदीयपुराण, अग्निपुराण, गरुडपुराण (३७५-४१३ ई.) आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इन सभी ग्रन्थों में अन्य विषयों के साथ-साथ प्रसंगवश छन्दों का विवेचन भी किया गया है । इन ग्रन्थों में पिंगल का ही अनुसरण है, अतः स्वतन्त्र मार्ग के अन्वेषण में इनका विशेष महत्त्व नहीं है।
पिंगल की परम्परा में संस्कृत में छन्दःशास्त्र पर अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये, जिनमें अपनी विशेष दृष्टि के कारण कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे-जयदेव (६७० या ९०० ई.) कृत 'जयदेवच्छन्द', कालिदास (८वीं शती)-रचित 'श्रुतबोध', जयकीर्ति (दसवीं शती) रचित छन्दोनुशासन, केदारभट्ट (१०वीं या ११वीं शती)-कृत ‘सुवृत्ततिलक', दामोदर (१४वीं शती का उत्तरार्द्ध) रचित 'वाणीभूषण', गंगदास (१५वीं/१६वीं शती)-रचित 'छन्दोमंजरी', कृष्णकवि-कृत मन्दारंमरदचम्पू, अज्ञात लेखक (१७-१८वीं शती) द्वारा लिखित 'छन्दःकौस्तुभ', दुःखभंजन कवि(१८९४ई.)-कृत वाग्वल्लभ आदि । इन ग्रन्थों में या तो पिंगल के अनुसार सूत्रशैली का प्रयोग है या श्रुतबोध, अग्निपुराण या नाट्यशास्त्र में प्राप्त श्लोक-शैली का। कुछ ग्रन्थों में एकनिष्ठ शैली का भी प्रयोग है। इस शैली में उदाहृत छन्द में ही लक्षण निहित रहता है । मिश्रित शैली के भी ग्रन्थ मिलते हैं, जिनमें छन्दों के लक्षण अलग-अलग छन्दों में भी हैं और कहीं-कहीं उदाहृत छन्दों में भी। इन शैलियों का हिन्दी-छन्दःशास्त्र-विषयक रचनाओं पर प्रभूत प्रभाव पड़ा। श्रुतबोध की लक्षण-उदाहरण की तादात्म्य-शैली अत्यधिक लोकप्रिय हुई और हिन्दी के लक्षणकारों ने इसे अपनाया। इसी प्रकार क्षेमेन्द्र के ‘सुवृत्ततिलक' का महत्त्व इस
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