Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
एवं क्खु नाणिनो सारं, जं न हिंसइ किंचन।
अहिंसा समयं चेव, एयावंत वियाणिया॥२ बुद्ध की दृष्टि में भी अहिंसा का वही महत्त्व है। उन्होंने अपने उपदेशों में स्पष्ट रूप से घोषित किया-प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं होता। आर्य तो प्राणिमात्र की अहिंसा से ही कहा जाता है। अपने समान ही सबका सुख-दुःख जानकर न तो स्वयं ही किसी को मारे और न किसी को मारने के लिए प्रेरित करे :
न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणानं अरियो ति पवुच्चति ॥ सब्वे तसंति दंडस्स, सव्वे भायंति मच्चुनो ।
अत्तानं उपमं कृत्वा न हनेय्य न घातये ॥३ चिन्तन की दृष्टि से दोनों धर्मों की दृष्टि में निकटता है। बौद्ध चिन्तन में 'नैरात्म्य' पर विशेष बल दिया गया है, जब कि जैन चिन्तन में संसार में जीव और अजीव दो तत्त्व माने गये हैं और जीव नित्य और अनन्त हैं।
चिन्तन का महत्त्व :
विचार के क्षेत्र में दोनों ही धर्मों में जो भी मौलिक अन्तर हो, पर आचार की दृष्टि से दोनों और भी एक दूसरे के निकट हैं। लोक-कल्याण की साधना के लिए दोनों ने ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को प्रमुखता प्रदान की थी। विचारणीय है कि क्या आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले के परिवेश में दोनों ही धर्म-प्रवर्तकों ने नया जीवन-दर्शन और आचारसंहिता प्रस्तुत की। उसी के आलोक में अपना जीवन जीया और सदियों तक भारत और भारत के पार के साधकों को अपनी जीवन-दृष्टि से अनुप्रेरित किया। आज के बदले हुए सन्दर्भो में क्या उनकी अपेक्षा रह गई है?
इसका सीधा-सादा उत्तर यही है कि दोनों ही महापुरुषों ने उस समय की समग्र परिस्थित के सन्दर्भ में चिन्तन प्रस्तुत किया। उसका महत्त्व तो है ही, पर वे चिन्तन और आचार-दर्शन शाश्वत जीवनमूल्यों से अनुप्रेरित हैं। प्राणिमात्र पर दया, निर्लोभता, निर्मोहता, अस्तेय और अपरिग्रह से मनुष्य की पशु-प्रवृत्तियों का ‘शमन' होता है। आज की दुनिया का सबसे बड़ा रोग यही है कि लोग काम, वैभव और सत्ता की तृष्णा से पीड़ित हैं। महत्त्वाकाक्षाओं की आग में जल रहे हैं। कहीं निर्वैरता नहीं, कहीं परस्पर मैत्री नहीं। गहराई से विचार कर देखें तो बुद्ध और
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