Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
168
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
शैली में प्रवीण हुए कोई दार्शनिक सभी दर्शनों के विकास का पारगामी नहीं हो सकता। किन्तु जैनदर्शन इन पाँच शताब्दियों में दार्शनिक विकास से वंचित रहा और इस शैली को न अपनाने के कारण अपरिष्कृत रह गया। १६वीं शताब्दी में यशोविजय (संवत् १६९९) ने इस अभाव को पूर्ण किया और ‘अनेकान्त-व्यवस्था' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखकर नव्यन्याय की शैली में जैन दर्शन को प्रवेश दिलाया। फिर यशस्वत् सागर (सं. १६५६), विमलदास, आचार्य विजयनेमि एवं उनके शिष्यगण हुए । लेकिन जैनदर्शन के विकास-क्रम में कोई नये विचार का सृजन नहीं हो सका।
यह भारतीय चिन्तनधारा की दुर्बलता है कि हममें अतीत के प्रति अत्यन्त मोह रहता है। वैदिक दर्शन में वेद-वेदान्त से लेकर विवेकानन्द, बौद्ध दर्शन में भगवान् बुद्ध से लेकर नव बौद्ध चिन्तन और जैनदर्शन में भगवान् महावीर से लेकर आजतक दार्शनिक क्षेत्र में कोई नवीन चिन्तन खड़ा नहीं हो सका है। पं. सुखलाल संघवी ने सं. १९४९-५१ ई. तक 'जैन साहित्य की प्रगति की समीक्षा करते हुए लिखा है कि हमारी चिरकालीन संघशक्ति इसलिए कार्यक्षम साबित नहीं होती कि उसमें नवदृष्टि का प्राण-स्पन्दन नहीं
है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org