Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
विलासिता और संग्रही वृत्ति है, उतनी ही पिछले युगों में भी थी । शोषण, अत्याचार, हिंसा, गुलामी आदि भी पिछले किसी युग में कम नहीं थे । सर्वसुखसम्पन्न स्वर्णयुग केवल कल्पना है । यथार्थ तो यही है कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनुष्य आहार, निद्रा, भय और मैथुन जैसे पशु-कर्मों से पीड़ित रहा है । किन्तु इन मूल वृत्तियों के परिमार्जन के लिए हर युग में जन्मजात उच्च संस्कारवाले कुछ महापुरुष प्रयास करते रहे हैं और उन्हीं के प्रयासों से पशुता के ऊषर में मानवता के कुछ फूल समय-समय खिलते रहे
। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, गाँधी आदि इसी पशुता के ऊषर में मनुष्यता के फूल खिलानेवाले महात्मा हैं, जिन्होंने अपने आत्मज्ञान, अनुभव, चिन्तन और विचारों से मनुष्य की पशुता को परिमार्जित कर उसे सँवारने और उन्नत बनाने का प्रयत्न किया है।
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मेरी दृष्टि में जैन दर्शन की विस्तृत और गम्भीर सरणि में कुछ बिन्दु ऐसे हैं, जो आज के वैज्ञानिक चिन्तन की दृष्टि से भी सही है और कुछ आचार ऐसे हैं, जो आज के किसी भी धर्मावलम्बी मनुष्य के लिए पूर्णतया ग्राह्य हैं । अतः जैन दर्शन की आधुनिकयुगीन प्रासंगिकता असन्दिग्ध है । यहाँ केवल जैनदर्शन के पंचमहाव्रतों की प्रासंगिकता पर विचार अपेक्षित है I
जैन दर्शन में पाँच महाव्रत माने गये हैं। इन महाव्रतों का अनुपालन जैनधर्म की आचार सहिंता है । ये महाव्रत पिछले युगों में जितने उपयोगी थे, आज भी उतने ही हैं और आगे भी रहेंगे। इन महाव्रतों का मानव समाज की सुख-शान्ति के लिए उतना ही महत्त्व है, जितना किसी एक व्यक्ति के लिए मोक्ष पाने हेतु ।
इन पाँच महाव्रतों में सबसे महत्त्वपूर्ण है— अहिंसा । जैन धर्म में मान्य अहिंसा के दो पक्ष हैं- (१) किसी जीव की हिंसा न करना (२) सभी जीवों से प्रेम करना । इनमें पहला निषेध-पक्ष है और दूसरा विधेय-पक्ष । जब विधेय-पक्ष का पालन होता होगा, तब निषेध-पक्ष स्वतः दुर्बल होगा। जब मन के भीतर की हिंसा - वृत्ति घटेगी, तब हिंसा - कर्म स्वतः छूट जायेगा | हिंसा न करना एक कठोर अनुशासन के दायरे में आता है, जिसपर कभी भावावेश में नियन्त्रण छूट भी सकता है, लेकिन सब जीवों से प्रेम किया जाय, तो प्रेम के मिश्रण से हिंसा भी तीव्रता उसी तरह घटती चली जायेगी, जिस तरह अधिक पानी मिलाते जाने से नमक का खारापन भी धीरे-धीरे घटता हुआ समाप्त हो जाता है ।
इस तरह हिंसा के निषेध और प्रेम के विधान द्वारा अहिंसा का पूर्ण रूप जैन दर्शन में स्थापित किया गया है । यह अंहिसा सभी कालों और सभी देशों में मनुष्य की सत्ता बनाये रखने के लिए, सामाजिक सुख-शान्ति के लिए और मानवीय उत्कृष्ट गुणों, यथाप्रेम दया, ममता, सहानुभूति सहयोग आदि की वृद्धि के लिए आवश्यक है। आज के सन्दर्भ में 'कुरुक्षेत्र' के भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं :
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