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ऐसा रोज होता है। जो लोग बहुत दिन से ध्यान कर रहे हैं, बहुत तरह की प्रक्रियाएं कर रहे हैं, उन्हें ध्यान बड़ी मुश्किल से लगता है। उनका अनुभव बाधा बनता है। कभी-कभी कोई चला आता है, ऐसे ही, तरंगों में बहता हुआ। कोई मित्र आता था—उसने कभी सोचा भी नहीं ध्यान का कोई मित्र आता था, उसने सोचा चलो चले चलें, देखें क्या है। कुतूहलवश चला आया था, कोई वासना न थी, कोई अध्यात्म की खोज भी न थी, कोई चेष्टा भी न थी, ऐसे ही चला आया था औरों को ध्यान करते देख तरंग आ गई, सम्मिलित हो गया-घट गया! चौंका आदमी : 'मैं तो आया ही नहीं था ध्यान करने और ध्यान हो गया!' बस फिर अड़चन। अब दुबारा जब आता है तो आकांक्षा है, मन में रस है; फिर से हो। लोभ है, पुनरुक्ति का भाव है! मन आ गया। मन ने सब खेल खराब कर दिया।
जहां मन नहीं है, वहां घटता है।
ध्यान रखना, मन पुनरुक्ति की वासना है। जो हुआ सुखद, फिर से हो; जो हुआ दुखद, फिर कभी न हो—यही तो मन है। मन चुनाव करता है: यह हो और यह न हो; ऐसा बार-बार हो और ऐसा अब कभी न हो। यही तो मन है।
जब तुम जीवन के साथ बहने लगते हो-जो हो ठीक, जो न हो ठीक; दुख आये तो स्वीकार; दुख आये तो विरोध नहीं, सुख आये तो स्वीकार; सुख आये तो उन्माद नहीं। जब सुख और दुख में कोई सम होने लगता है, समता आने लगती है: जब सख और दख धीरे-धीरे एक ही जैसे मालम होने लगते हैं, क्योंकि कोई चुनाव न रहा, अपने हाथ की कोई बात न रही, जो होता है होता है; हम देखते रहते हैं—इसको अष्टावक्र कहते हैं साक्षी-भाव। और वे कहते हैं, साक्षी-भाव सधा तो सब सधाः साक्षी-भाव साक्षी को जगाता है भीतर, बाहर समता ले आता है। समत्व साक्षी-भाव की छाया है। ___ या तुम समत्व में उपलब्ध हो जाओ तो साक्षी-भाव चला आता है। वे दोनों साथ-साथ चलते हैं। वे एक ही घटना के दो पैर या दो पंख हैं।
'...उसी आकाश में भ्रमण करने का जी होता रहता है।'
इससे सावधान होना। मन को मौका मत देना कि ध्यान की घड़ियों को खराब करे। इसी मन ने तो संसार खराब किया। इसी ने तो जीवन के सारे संबंध विकृत किये। इसी मन ने तो सारे जीवन को रेगिस्तान जैसा रूखा कर दिया; जहां बहुत फूल खिल सकते थे, वहां सिर्फ कांटे हाथ में रह गये। अब इस मन को अंतर्यात्रा पर साथ मत लाओ। इसे नमस्कार करो। इसे विदा दो। प्रेम से सही, पर इसे विदा दो। इससे कहो : बहुत हो गया, अब हम न मांगेंगे। अब जो होगा, हम जागेंगे। हम देखेंगे।
। जैसे ही तुमने मांगा, फिर तुम साक्षी नहीं रह सकते, तुम भोक्ता हो गये। ध्यान के भी भोक्ता हो गये तो ध्यान गया। भोक्ता का अर्थ यह है कि तुमने कहा : इसमें मुझे रस आया, इससे मुझे सुख मिला। __...ज्ञान, कर्म, भक्ति मैं नहीं जानता; लेकिन अकेला होने पर इसी स्थिति में डूबे रहने का जी होता है।' ___ छोड़ो इस जी को और तुम डूबोगे इसी स्थिति में। अकेले ही नहीं, भीड़ में भी रहोगे, तो डबोगे। बाजार में भी रहोगे तो भी डबोगे। इस स्थिति का कोई संबंध अकेले और भीड़ से नहीं है, मंदिर और बाजार से नहीं है, एकांत, समूह से नहीं है—इस स्थिति का संबंध तुम्हारे चित्त के शांत होने से है, सम होने से है। जहां भी शांति, समता होगी, यह घटना घटेगी। लेकिन तुम इसको मांगो
समाधि का सूत्र: विश्राम
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