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जाएगा। तुम्हारे तथाकथित साधु-संत भी तुमसे यही कहे चले जाते हैं : पुण्य करो, अगर परमात्मा को पाना है। जैसे परमात्मा को पाने के लिए कुछ करना पड़ेगा! जैसे परमात्मा बिना किये मिला हुआ नहीं है! जैसे परमात्मा को खरीदना है, मूल्य चुकाना पड़ेगा। इतने पुण्य करो, इतनी तपश्चर्या, इतना ध्यान, इतना मंत्र, जप, तप-तब मिलेगा! बाजार में रख लिया तुमने। बिकने वाली एक चीज बना दी। खरीददार खरीद लेंगे। जिनके पास है पुण्य, वे खरीद लेंगे। जिनके पास पुण्य नहीं है वे वंचित रह जायेंगे। पुण्य के सिक्के चाहिए; खनखनाओ पुण्य के सिक्के, तो मिलेगा। ___ अष्टावक्र कह रहे हैं : क्या पागलों जैसी बात कर रहे हो? पुण्य से मिलेगा परमात्मा? तब तो खरीददारी हो गई। पूजा से मिलेगा परमात्मा? तो तुमने तो खरीद लिया। प्रसाद कहां रहा? और जो कारण से मिलता है, वह कारण अगर खो जायेगा, तो फिर खो जायेगा। जो अगर कारण से मिलता हो, तो कारण के मिट जाने से फिर छूट जायेगा।
तुमने धन कमा लिया। तुमने खूब मेहनत की, तुमने खब स्पर्धा की बाजार में धन कमा लिया। लेकिन क्या तुम सोचते हो, धन कमाया हुआ टिकेगा? चोर इसे चुरा सकते हैं। चोर का मतलब है, जो तुमसे भी ज्यादा जीवन को दांव पर लगा देता है। दुकानदानर भी मेहनत करता है; लेकिन चोर अपने जीवन को भी दांव पर लगा देता है। वह कहता है, लो हम मरने-मारने को तैयार हैं, लेकिन लेकर जायेंगे। तो वह ले जाता है।
जो कारण से मिला है, वह तो छूट सकता है। परमात्मा अकारण मिलता है। लेकिन हमारा अहंकार मानता नहीं। हमारा अहंकार कहता है, अकारण मिलता है, तो इसका मतलब यह कि जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, उनको भी मिल जायेगा? यह बात हमें बड़ी कष्टकर मालूम होती है कि जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, उनको भी मिल जायेगा।
वहां सामने 'अरूप' बैठे हंस रहे हैं। वे कल मुझसे कह रहे थे कि कुछ करने का मन नहीं होता। मैंने कहा, चलो न करने में डूबो। परमात्मा को पाने के लिए करने की जरूरत क्या है ? केहो भी तो भरोसा नहीं आता। क्योंकि हमारा मन कहता है, बिना किये? बिना किये तो क्षुद्र चीजें नहीं मिलतीमकान नहीं मिलता, कार नहीं मिलती, दुकान नहीं मिलती, धन, पद, प्रतिष्ठा नहीं मिलती-परमात्मा मिल जायेगा बिना किये? भरोसा नहीं आता। करना तो पड़ेगा ही। कोई तरकीब होगी इसमें। इस 'न करने' को भी करना पड़ेगा। इसलिए तो हम ऐसे-ऐसे शब्द बना लेते हैं-कर्म में अकर्म, अकर्म में कर्म-मगर हम कर्म को डाल ही देते हैं। अकर्म में कर्म'- करेंगे इस भांति, मगर करेंगे जरूर! बिना किये कहीं मिलेगा? ____ मैं तुमसे कहता हूं, वही अष्टावक्र कह रहे हैं : मिला ही हुआ है। मिलने की भाषा ही गलत है। मिलने की भाषा में तो दूरी आ गई; जैसे छूट गया। छूट जाये तो तुम क्षण भर जी सकते हो? परमात्मा से छूट कर कैसे जीयोगे? परमात्मा से छूट कर तो तुम्हारी वही गति हो जायेगी जो मछली की सागर से छूट कर हो जाती है। फिर मछली तो सागर से छूट भी सकती है, क्योंकि सागर के अलावा कुछ और स्थान भी है, लेकिन तुम परमात्मा से कैसे छूटोगे—वही है, बस वही है, सब जगह वही है, सब जगह उसी में है; तुम छूटोगे कहां, तुम जाओगे कहां? किनारा है कोई परमात्मा का? सागर ही सागर है। उसके बाहर होने का उपाय नहीं है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1