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उसका ही मृदुतर कुतूहल प्रकाश की किरण छुआएगा । तुझसे रहस्य की बात निभृत में एक वही कर पाएगा।
तू उतना वैसा समझेगी
वह जैसा जो समझाएगा
तेरा वह प्राप्य वरद कर
तुम पर जो बरसाएगा
उद्देश्य, उसे जो भावे
लक्ष्य वही, जिस ओर मोड़ दे वह
तेरा पथ मुड़-मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा।
तू अपनी भी उतनी ही होगी जितना वह अपनाएगा ओ आत्मा री ! तू गई वरी
महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं। उद्देश्य, उसे जो भावे; समर्पण का यही अर्थ है। उद्देश्य, उसे जो भावे
लक्ष्य वही, जिस ओर मोड़ दे वह
तेरा पथ मुड़-मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा तू अपनी भी उतनी ही होगी
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जितना वह अपनाएगा ओ आत्मा री ! तू गई वरी
महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं।
अगर तुम्हें लगता है कि स्त्रैण - चित्त है तुम्हारे पास - शुभ है, मंगल है। पुरुष - चित्त का कोई अपने- आप में मूल्य नहीं । हो तो वह भी शुभ है, वह भी मंगल है।
परमात्मा ने दो ही तरह के चित्त बनाए : स्त्रैण और पुरुष; संकल्प और समर्पण। दो ही मार्ग हैं उस तक जाने के। तुम जहां हो वहीं से चलो। तुम जैसे हो वैसे ही चलो। प्रभु तुम्हें वैसा ही अंगीकार करेगा ।
हरि ॐ तत्सत् !
अष्टावक्र: महागीता भाग-1