Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 385
________________ आखिरी प्रश्न: मैं स्त्रैण - चित्त का आदमी हूं, संकल्प बिलकुल नहीं है। क्या संकल्प का विकास करना जरूरी है ? थोपना आवश्यक नहीं है । चित्त जैसा हो उसी चित्त के सहारे परमात्मा तक पहुंचो। परमात्मा तक स्त्रैण चित्त पहुंच जाते हैं, पुरुष - चित्त पहुंच जाते हैं । परमात्मा तक तुम जहां हो, वहीं से पहुंचने का उपाय है; बदलने की कोई जरूरत नहीं है। और बदलने की झंझट में तुम पड़ना मत, क्योंकि बदल तुम पाओगे न । अगर तुम्हारा चित्त भावपूर्ण है तो तुम लाख उपाय करो, तुम उसे संकल्प से न भर पाओगे। अगर तुम्हारा चित्त हृदय से भरा है तो तुम बुद्धि का आयोजन न कर पाओगे। जरूरत भी नहीं है। ऐसी उलझन में पड़ना भी मत । अन्यथा तुम जो हो, वह भी न रह पाओगे; और तुम जो होना चाहते हो वह तो तुम हो न सकोगे। गुलाब का फूल गुलाब के फूल की तरह ही चढ़ेगा प्रभु के चरणों में । कमल का फूल कमल के फूल की तरह चढ़ेगा। तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार हो। तुम जैसे हो वैसा ही प्रभु ने तुम्हें बनाया । तुम जैसे हो वैसा ही प्रभु ने तुम्हें चाहा। तुम अन्यथा होने की चेष्टा में विकृत मत हो जाना, क्षत-विक्षत मत हो जाना। तुमसे मैं एक छोटा-सा गीत कहता हूं : तू नहीं कहेगा, मैं फिर भी सुन ही लूंगा किरण भोर की पहली, भोलेपन से बतलावेगी झरना शिशु-सा अनजान उसे दोहरावेगा घोंघा गीली-पीली रेती पर धीरे-धीरे आंकेगा जरा भी जरूरी नहीं है । समर्पण पर्याप्त है। अपने चित्त को पहचानो। कुछ भी पत्तों का मरमर कनबतियों में जहां-तहां फैलावेगा पंछी की तीखी कूंक फरहरे मढ़े शल्य - सी आसमान पर टांकेगी फिर दिन सहसा खुल कर उसको सब पर प्रगटावेगा । तू नहीं कहेगा, मैं फिर भी सुन ही लूंगा मैं ही लूंगा। गुन तू नहीं कहेगा आस्था है नहीं अनमना होऊंगा तब मैं सुन लूंगा। और दे भी क्या सकता हूं हवाला या प्रमाण अपनी बात का ? अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा। संभ्रम अवगुंठित अंगों को उद्देश्य—उसे जो भावे 371

Loading...

Page Navigation
1 ... 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424