________________
यहां मुझे सुन रहे हैं — दो तरह से सुना जा सकता है। सुनते वक्त मैं जो बोल रहा हूं, अगर पर ही ध्यान रहे और तुम अपने को भूल जाओ तो फिर तुम द्रष्टा न रहे, श्रोता न रहे, श्रावक न रहे। तुम्हारा ध्यान मुझ पर अटक गया, तो तुम 'दर्शक हो गए। आंख से ही दर्शक नहीं हुआ जाता, कान से भी दर्शक हुआ जाता है। जब भी ध्यान आब्जेक्ट पर, विषय पर अटक जाये तो तुम दर्शक हो गये।
सुनते वक्त, सुनो मुझे; साथ में उसको भी देखते रहो, पकड़ते रहो, टटोलते रहो-जो सुन रहा है । निश्चित ही तुम सुन रहे हो, मैं बोल रहा हूं : बोलने वाले पर ही नजर न रहे, सुनने वाले को भी पकड़ते रहो, बीच-बीच में उसका खयाल लेते रहो। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जिस घड़ी में तुमने सुनने वाले को पकड़ा, उसी घड़ी में तुमने मुझे सुना; शेष सब व्यर्थ गया । जब तुम सुनने वाले को पकड़ कर सुनोगे तब जो मैं कह रहा हूं वही तुम्हें सुनायी पड़ेगा। और अगर तुमने सुनने वाले को नहीं पकड़ा है तो तुम न मालूम क्या-क्या सुन लोगे, जो न तो मैंने कहा, न अष्टावक्र ने कहा। तब तुम्हारा मन बहुत से जाल बुन लेगा।
तुम बेहोश हो ! बेहोशी में तुम कैसे होश की बातें समझ सकते हो ? ये बातें होश की हैं। ये बातें किसी और दुनिया की हैं। तुमने अगर नींद में सुना तो तुम इन बातों के आसपास अपने सपने गूंथ लोगे। तुम इन बातों का रंग खराब कर दोगे। तुम इनको पोत लोगे। तुम अपने ढंग से इनका अर्थ निकाल लोगे। तुम इनकी व्याख्या कर लोगे, तुम्हारी व्याख्या में ही ये अदभुत वचन मुर्दा हो जाएंगे । तुम्हारे हाथ लाश लगेगी अष्टावक्र की; जीवित अष्टावक्र से तुम चूक जाओगे। क्योंकि जीवित अष्टावक्र को पकड़ने के लिए तो तुम्हें अपने द्रष्टा को पकड़ना होगा- वहां है जीवित अष्टावक्र ।
इसे खयाल में लो।
सुनते हो मुझे, सुनते-सुनते उसको भी सुनने लगो जो सुन रहा है। तीर दोहरा हो जाये : मेरी तरफ और तुम्हारी तरफ भी हो। अगर मैं भूल जाऊं तो कोई हर्जा नहीं, लेकिन तुम नहीं भूलने चाहिए। और. एक ऐसी घड़ी आती है, जब न तो तुम रह जाते हो, न मैं रह जाता हूं। एक ऐसी परम शांति की घड़ी आती है, जब दो नहीं रह जाते, एक ही बचता है; तुम ही बोल रहे हो, तुम ही सुन रहे हो; तुम ही देख रहे हो, तुम ही दिखायी पड़ रहे हो। उस घड़ी के लिए ही इशारा अष्टावक्र कर रहे हैं कि वह एक द्रष्टा, और सदा सचमुच मुक्त है!
है
बंधन स्वप्न जैसा है।
आज रात तुम पूना में सोओगे, लेकिन नींद में तुम कलकत्ते में हो सकते हो, दिल्ली में हो सकते हो, काठमांडू में हो सकते हो, कहीं भी हो सकते हो। सुबह जागकर फिर तुम अपने को पूना में पाओगे। सपने में अगर काठमांडू चले गये, तो लौटने के लिए कोई हवाई जहाज से यात्रा नहीं करनी पड़ेगी, न ट्रेन पकड़नी पड़ेगी, न पैदल यात्रा करनी पड़ेगी। यात्रा करनी ही नहीं पड़ेगी। सुबह आंख खुलेगी और तुम पाओगे कि पूना में हो। सुबह तुम पाओगे, तुम कहीं गये ही नहीं। सपने में गये थे । सपने में जाना कोई जाना है ?
'बंधन तो एक ही है तेरा कि तू अपने को छोड़, दूसरे को द्रष्टा देखता है । '
एक ही बंधन है कि हमें अपना होश नहीं, अपने द्रष्टा का होश नहीं।
एक तो यह अर्थ है इस सूत्र का । एक और भी अर्थ है, वह भी खयाल में ले लेना चाहिए।
64
अष्टावक्र: महागीता भाग-1