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कूदे और अंदर से दरवाजा बंद करके बैठ गए।
अब तु भागो या पिंजड़े में कूद कर दरवाजा बंद करके बैठ जाओ - ये प्रक्रियाएं उल्टी दिखाई पड़ती हैं लेकिन उल्टी नहीं । वस्तुतः तो संत पुरुष ही ज्यादा कुशल आदमी है। क्योंकि एक बात पक्की है कि सिंह और कहीं जाए, पिंजड़े में वापिस आने वाला नहीं है; अपने से तो आने वाला नहीं है। सब जगह खतरा है, सिर्फ पिंजड़े में खतरा नहीं है।
मैं तुम्हें ऐसे संत पुरुष नहीं बनाना चाहता हूं। लोग संसार से भाग कर पिंजड़ों में बंद हो जाते हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे पिंजड़े हैं। वहां सीखचों में बैठ जाते हैं। वहां कोई सिंह इत्यादि नहीं आते। लेकिन वह भी बचाव है; जीवन-क्रांति नहीं, पलायन है।
तुम मुझे जब सुनो तो मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी गायक को सुनता है । तुम मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी कवि को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि जैसे कोई कभी पक्षियों के गीतों को सुनता है, या वृक्षों में हवा के झोकों को सुनता है, या पानी की मरमर को सुनता है, या वर्षा में गरजते मेघों को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि तुम उसमें अपना हिसाब मत रखो। तुम आनंद के लिए सुनो। तुम रस में डूबो। तुम यहां दूकानदार की तरह मत आओ। तुम यहां बैठे-बैठे भीतर गणित मत बिठाओ कि क्या इसमें से चुन लें और क्या करें और क्या न करें। तुम सिर्फ मुझे आनंद - भाव से सुनो।
स्वांतः सुखाय रघुनाथ गाथा... स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा!
स्वतः सुखाय ! सुख के लिए सुनो। उस सुख में सुनते-सुनते जो चीज तुम्हें गदगद कर जाए, उसमें फिर थोड़ी और डुबकी लगाओ। मेरा गीत सुना, उसमें जो कड़ी तुम्हें भा जाए, फिर तुमसे गुनगुनाओ। उसे तुम्हारा मंत्र बन जाने दो। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जीवन में बहुत कुछ बिना बड़ा आयोजन किए घटने लगा।
हवा कहीं से उठी, बही ऊपर ही ऊपर चली गई
पथ सोया ही रहा किनारे के क्षुप चौंके नहीं
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न कांपी डाल
न पत्ती कोई दरकी
अंग लगी लघु ओस
बूंद भी एक न ढरकी
हवा कहीं से उठी, बही ऊपर ही ऊपर चली गई। वनखंडी में सधे खड़े, पर अपनी ऊंचाई में खोए-से चीड़ जाग कर सिहर उठे सनसना गए
एक स्वर नाम वही अनजाना
अष्टावक्र: महागीता भाग-1