________________
तो एक तो उपाय है कि इन सूत्रों को सुनते ही घट जाये। घट जाये तो घट जाये, तुम कुछ कर नहीं सकते उसमें; अगर न घटे, तो फिर तुम्हें धीरे-धीरे ध्यान, ध्यान से फिर सविकल्प समाधि, सविकल्प समाधि से फिर निर्विकल्प समाधि — उसकी यात्रा करनी पड़े। छलांग लग जाये तो ठीक, नहीं तो फिर सीढ़ियों से उतरना पड़े। छलांग लग जाये तो लग जाये। किसी को लग सकती है। सभी आश्चर्य संभव हैं, क्योंकि तुम आश्चर्यों के आश्चर्य हो !
इसलिए इसमें असंभव कुछ भी नहीं है। यहां मुझे सुनते-सुनते किसी को छलांग लग सकती है। अगर तुम बीच में न आओ; अगर तुम अपने को अलग रख दो, अगर तुम अपनी बुद्धि को उतार कर रख दो जैसे जूते और कपड़े उतार कर रख देते हो; अगर तुम शुद्ध, नग्न चैतन्य से मेरे सामने हो जाओ – तो यह छलांग लग सकती है। जैसी जनक को लगी, वैसी तुम्हें लग सकती है। लग जाये, ठीक; उपाय नहीं है इसमें फिर । तुम यह नहीं पूछ सकते कि हम कैसे इंतजाम करें इसके लगाने का ? अगर इंतजाम पूछा तो यह नहीं लगती। फिर दूसरा उपाय है। फिर पतंजलि तुम्हारा मार्ग हैं, फिर महावीर, फिर बुद्ध । फिर अष्टावक्र तुम्हारे मार्ग नहीं हैं।
इसीलिए तो अष्टावक्र की गीता अंधेरे में पड़ी रही है । इतनी त्वरा, इतनी तीव्रता, इतनी मेधा, मुश्किल से मिलती है। जन्मों-जन्मों तक कोई निखार कर आया होता है, तो यह घटना घटती है। मगर घटती है! कभी सौ में एकाध को, मगर घटती है ! ऐसे मनुष्य जाति के इतिहास में बहुत-से उल्लेख हैं, जब कोई छोटी-मोटी घटना ने क्रांति कर दी।
मैंने सुना है, बंगाल में एक साधु हुए, अदालत में क्लर्क थे, हेड क्लर्क थे । रिटायर हो गए। बाबूना था। बंगाली थे, सो बाबू । साठ के ऊपर उम्र हो गई थी, एक दिन सुबह घूमने निकले थे। ब्रह्ममुहूर्त, सूरज अभी उगा नहीं। कोई स्त्री अपने घर में, दरवाजा बंद है, किसी को जगाती थी। होगी उसका बेटा, होगा उसका देवर - किसी को जगाती थी। कहती थी, 'राजा बाबू उठो, बहुत देर हो गई!' राजा बाबू बाहर से निकल रहे थे अपनी छड़ी लिए, सुबह घूमने निकले थे। अचानक सुबह उस ब्रह्ममुहूर्त के क्षण में, सूरज अभी उगने -उगने को है, आकाश पर लाली फैली है, पक्षी गीत गुनगुनाने लगे, सारी प्रकृति जागरण से भरी -घट गई बात! स्त्री तो किसी और को जगाती थी, इन राजा बाबू से तो कुछ कहा ही न था । उसे तो पता भी न था कि ये राजा बाबू बाहर से निकल रहे हैं । ये तो अपने घूमने निकले थे, वह किसी को भीतर कहती थी कि 'राजा बाबू उठो, सुबह हो गई, बहुत देर हो गई ! अब उठो भी, कब तक सोये रहोगे ?' सुनाई पड़ा - घट गई घटना । घर नहीं लौटे। चलते ही गए। जंगल पहुंच गए। घर के लोगों को पता चला। घर के लोग खोजने गए, मिले जंगल में । पूछा, 'क्या हो गया?' हंसने लगे! कहा, 'बस हो गया ! राजा बाबू जग गए, अब जाओ!' उन्होंने कहा, ‘क्या मतलब? क्या कहते हैं आप ?' उन्होंने कहा, 'अब कहने-सुनने को कुछ भी नहीं। बहुत देर वैसे ही हो गई थी। बात समझ में आ गई। सुबह का वक्त था, सारी प्रकृति जाग रही थी— उसी जागरण में मैं भी जाग गया! कोई स्त्री कहती थी : उठो बहुत देर हो गई ! पड़ गई चोट । '
अब स्त्री तो अष्टावक्र भी न थी, खुद भी जागी न थी ! तो कभी-कभी ऐसा भी हुआ है, अगर तुम्हारी मेधा प्रगाढ़ हो, तुम्हारा फल पक गया हो, तो हवा का झोंका — या न चले हवा, तो भी कभी पका फल बिना झोंके के भी गिर जाता है । हो जाये तो हो जाये ! लेकिन अगर न हो, तो निराश मत
मेरा मुझको नमस्कार
239