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पर लगा देते हो, कुछ बचाते नहीं, अपने को पूरा झोंक देते हो आग में, श्रम परिपूर्ण हो जाता है, तपश्चर्या पूरी हो जाती है, साधन पूरा हो जाता है; अब तुमसे कोई अस्तित्व यह मांग नहीं कर सकता कि तुमने कुछ भी बचाया था; सब लगा दिया — उस दिन, उस प्रगाढ़ता में, उस प्रज्वलित चित्त की दशा में अचानक सब भस्मीभूत हो जाता है । सब साधन, सब अनुष्ठान, सब ध्यान, सब तप त्याग — अचानक तुम जागकर पाते हो कि अरे, यह तो मिला ही था जिसे मैं खोज रहा था !
लेकिन यह अष्टावक्र को पढ़ने से हो जाता होता तो बात बड़ी सुगम थी । अष्टावक्र को पढ़ना क्या कठिन है ? सूत्र तो बड़े सीधे - साफ हैं।
ध्यान रखना, सीधी-सरल बातें समझना इस जगत में सबसे कठिन है । और कठिनाई तुम्हारे भीतर से आती है। तुम चाहते ही थे कि कुछ न करना पड़े। ध्यान बामुश्किल लोग करने को राजी होते हैं। अब यह कसौटी है- अष्टावक्र की गीता। अष्टावक्र को सुनकर भी जो ध्यान करते रहेंगे, वे ही समझे। जो अष्टावक्र को सुनकर ध्यान छोड़ देंगे, अष्टावक्र को तो समझे ही नहीं, ध्यान भी गया।
अनुष्ठान करके ही पता चलेगा अनुष्ठान बंधन है । यह तो आखिरी दशा है अनुष्ठान करने की । इससे तुम जल्दबाजी मत कर लेना ।
'वेदांत और अष्टावक्र जैसे ग्रंथों द्वारा स्वाध्याय करके यह जाना... ।'
स्वाध्याय करके किसी ने कहीं जाना ? पठन-पाठन करके किसी ने जाना ? शास्त्र, शब्दों को सीख लेने से किसी ने जाना ? यह जानना नहीं है, यह जानकारी है। 'जानकारी हुई' कहो, कि जो पाने योग्य है पाया ही हुआ है। अगर जान ही लिया तो बात खत्म हो गई। सूचना मिली, गुदगुदी उठी, लोभ में अंकुर हुआ ! लोभ ने कहा, अरे ! हम नाहक मेहनत करते थे; ये अष्टावक्र कहते हैं, बिना ही किए, तो चलो बिना ही किए बैठ जाएं। तो तुम बिना ही किये बैठ गये। थोड़ी ही देर में तुम देखने लगेः 'अभी तक घटी नहीं घटना; देर लग रही है, बात क्या है? और अष्टावक्र कहते हैं, अभी ! ' तुम घड़ी पर नजर लगाये बैठे हो कि 'पांच सेकेंड निकल गये, पांच मिनिट निकल गये, यह घंटा भी बीता जा रहा है - और अष्टावक्र कहते हैं, तत्क्षण ! इसी वक्त ! एक क्षण के भी विदा होने की जरूरत नहीं !' फिर तुम कहने लगे, झूठ ही कहते होंगे । श्रद्धा टूट गई।
जाना नहीं – जानकारी हुई। जानकारी और जानने के फर्क को सदा याद रखना। जानकारी अर्थात उधार । किसी और ने जाना, उससे सुन कर तुम्हें जानकारी हुई। इन्फार्मेशन – जानकारी । जानना तो अनुभव है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई तुम्हारे लिए जान नहीं सकता। यह उधार नहीं हो सकता।' मैं जान लूं, इससे तुम्हारे जानने की थोड़े ही घटना घटेगी। मेरा जानना मेरा होगा, तुम्हारा जानना तुम्हारा होगा । हां, अगर मेरे शब्दों को तुमने संग्रह कर लिया तो वह जानकारी है। जानकारी से आदमी पंडित बनता है, प्रज्ञावान नहीं । ज्ञान का बोझ इकट्ठा हो जाता है, ज्ञान की मुक्ति नहीं। शब्दों का जाल खड़ा हो जाता है, सत्य का सौंदर्य नहीं । शब्द और घेर लेते हैं, और बांध लेते हैं। इसलिए तुम पंडित को बड़ा बंधा हुआ पाओगे । खुला आकाश कहां ?
'यह जाना कि जो पाने योग्य है वह पाया ही हुआ है।' अगर जान ही लिया, तो अब क्या पूछने को बचा ?
'उसके लिये प्रयास भटकन है।' अगर यह जान ही लिया, तो अब और क्या पूछने को बचा ?
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1