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अनजान जब पुकारे तो सकुचाना मत। अपरिचित जब बुलाये तो ठिठकना मत। अज्ञेय जब द्वार पर दस्तक दे तो भयभीत मत होना, चल पड़ना । यही धार्मिक व्यक्ति का लक्षण है।
तीसरा प्रश्न: आपकी जय हो! मैं हजार जन्मों में भी इतना नहीं प्राप्त कर सकता था, जितना आपने अनायास मुझे दे दिया है। मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें !
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या तुमने, तो शिष्य हो गये। शिष्य का होना मेरी स्वीकृति पर
निर्भर नहीं है; शिष्य का होना तुम्हारी स्वीकृति पर निर्भर है। शिष्य का अर्थ होता है : जो सीखने को .. तैयार है। शिष्य का अर्थ होता है : जो झुकने को, झोली भरने को राजी है। शिष्य का अर्थ होता है : विनम्रता से सुनने को, शांत भाव से मनन करने को, ध्यान करने को उत्सुक ।
तुम शिष्य हो गए— अगर तुमने लिया, तो लेने में ही तुम शिष्य हो गए।
शिष्य का होना मेरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं होता। मैं स्वीकार भी कर लूं और तुम अगर न लो, तो मैं क्या करूंगा? मैं स्वीकार न भी करूं और तुम लेते चले जाओ, तो मैं क्या करूंगा ?
शिष्यत्व तुम्हारी स्वतंत्रता है । यह किसी का दान नहीं है। शिष्यत्व तुम्हारी गरिमा है। इसके लिए किसी प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है। इसलिए तो एकलव्य जंगल में भी जाकर बैठ गया था। देखा ! द्रोणाचार्य ने तो इनकार भी कर दिया था, फिर भी उसने फिक्र न की। गुरु ने तो इनकार ही कर दिया; लेकिन शिष्य, शिष्य बनने को राजी था, तो गुरु क्या कर सका ? एक दिन गुरु ने पाया कि गुरु को हरा दिया शिष्य ने । एकलव्य तो मिट्टी की मूर्ति बनाकर बैठ गया, उसी के सामने अभ्यास करने लगा; उसी की आज्ञा मानने लगा; उसी के चरण छूने लगा ।
जब द्रोण को खबर लगी कि एकलव्य बहुत निष्णात हो गया है तो वे देखने गए। चकित हो गए; चकित ही न हुए, घबड़ा भी गए। इतने घबड़ा गए, क्योंकि एकलव्य ने इस तरह साधा था कि अर्जुन फीका पड़ता था। द्रोण कोई बहुत बड़े गुरु न रहे होंगे; एकलव्य बहुत बड़ा शिष्य था । द्रोण तो साधारण गुरु रहे होंगे - अति साधारण! गुरु कहे जा सकें, ऐसे गुरु नहीं । कुशल होंगे, पारंगत होंगे, लेकिन गुरुत्व की बात नहीं थी कुछ भी। पहले तो इसलिए इनकार कर दिया कि वह शूद्र था । यह भी कोई गुरु की बात हुई? अभी भी गुरु को ब्राह्मण और शूद्र दिखाई पड़ते हैं! नहीं, दुकानदार रहे होंगे, बाजारी
हरि ॐ तत्सत्
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