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दूसरा प्रश्नः कल संध्या घूम रहा था कि अचानक आपका कल सुबह का पूरा प्रवचन मेरे रोम-रोम में गूंजने लगा। दर्शक होकर दृश्यों की छवि निहार रहा था कि कहीं से द्रष्टा की याद आ गई। द्रष्टा का खेल भी जरा देर य ही मैं तुमसे कह रहा हूं। चला, लेकिन इसी बीच मेरे पैर लड़खड़ाने । अगर सत्य की थोड़ी-सी झलक भी लगे और गिरने से बचने के लिए मैं सडक के तम्हारे पास आएगी तो तम बेचैन हो जाओगे किनारे बैठ गया। और तभी न दृश्य रहा न तुम समझ न पाओगे यह क्या है। न समझ पाए दर्शक रहा और न द्रष्टा ही रहा। सब कुछ कि क्या है, तो गहन अशांति पकड़ लेगी, समाप्त हो गया और फिर भी कुछ था। कभी विक्षिप्तता भी पकड़ सकती है। इसलिए बोलता अंधेरा, कभी प्रकाश की आंख-मिचौनी चलती हूं इन शास्त्रों पर। इसलिए रोज तुम्हें समझाए रही। लेकिन तभी से बेचैनी भी बढ़ गई और जाता हूं कि कहीं तुम्हारे अचेतन में जानकारी पड़ी समझ में नहीं आया कि यह सब क्या है! रहे और जब घटनाएं घटें तो तुम उनकी ठीक
ठीक व्याख्या कर लो, सुलझा लो। अन्यथा तुम सुलझाओगे कैसे? - तुम्हारे पास भाषा न होगी; शब्द न होंगे; समझने का कोई उपाय न होगा; पटंट न होगा। तराज न होगा. तम तौलोगे कैसे? कसौटी न होगी, तम परखोगे कैसे?
पूछा है : 'मेरे रोम-रोम में प्रवचन गूंजने लगा। दर्शक होकर दृश्यों की छवि निहार रहा था, कहीं से द्रष्टा की याद आ गई। द्रष्टा का खेल भी जरा देर चला, लेकिन इसी बीच मेरे पैर लड़खड़ाने लगे और गिरने से बचने के लिए मैं सड़क के किनारे बैठ गया।'
निश्चित ही ऐसा ही होता है। जब पहली दफा तुम्हें द्रष्टा का थोड़ा-सा बोध होगा, तुम लड़खड़ा . जाओगे; तुम्हारी पूरी जिंदगी लड़खड़ा जाएगी। क्योंकि तुम्हारी पूरी जिंदगी ही द्रष्टा के बिना खड़ी है। यह नई घटना सब अस्तव्यस्त कर देगी। जैसे अंधे आदमी की अचानक आंख खुल जाए, थोड़ा सोचो, वह चल पाएगा रास्ते पर? वह लड़खड़ा जाएगा। चालीस साल, पचास साल से अंधा था, लकड़ी के सहारे टटोल-टटोलकर चलता था। अंधेरे में चलने की धीरे-धीरे क्षमता आ गई थी अंधेपन के साथ ही। कुशल हो गया था। आवाजें समझ लेता था। रास्तों के मोड़ पहचान में आ गए थे। कान के द्वारा आंख का काम लेना सीख गया था। पचास साल से सब ठीक व्यवस्थित हो गया था।
एक जिंदगी है अंधे की-तम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते-प्रकाश-विहीन. रंग-विहीन. रूप-विहीन, आकार-विहीन: सिर्फ ध्वनि के माध्यम पर टिकी। उसकी एक ही भाषा है: ध्वनि। तो उसी के आधार पर उसने अपना सारा जीवन संरचित कर लिया था। आज अचानक सुबह वह जा रहा है बाजार, उसकी अचानक आंख खुल जाए, थोड़ा सोचो क्या होगा? उसका सारा संसार झकपका कर गिर पड़ेगा। उसकी ध्वनि का सारा लोक एकदम अस्तव्यस्त हो जाएगा। यह घटना इतनी बड़ी होगी-आंख का खलना, लोगों के चेहरे दिखाई पड़ने, रंग दिखाई पड़ने, सरज की किरणें, धूप-छांव, यह भीड़-भाड़, इतने लोग, बसें, कारें, साईकिलें-वह एकदम घबड़ा जाएगा। यह इतना बड़ा आघात होगा उसके ऊपर कि उसकी छोटी-सी दुनिया जो ध्वनि के सहारे बनी थी, वह कहीं दब
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1