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क्षण धीरे-धीरे तुम्हारा शाश्वत स्वरूप बन जाएगा। इसे तुम चाहो तो पकड़ लो, चाहो तो चूक जाओ। जनक ने पकड़ लिया।
रात मैं जागा अंधकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियां धीमी रहस्य-सुरीली, परम गीत में
और गीत वह मुझसे बोला दुर्निवार! अरे तुम अभी तक नहीं जागे?
और यह मुक्त स्रोत-सा सभी ओर बह चला उजाला अरे, अभागे कितनी बार भरा
अनदेखे, छलक-छलक बह गया तुम्हारा प्याला! तुम पहली दफे नहीं सुन रहे हो इन वचनों को; बहुत बार सुन चुके हो। तुम अति प्राचीन हो। हो सकता है, अष्टावक्र से भी तुमने सुना हो। तुम में से कुछ ने तो निश्चित सुना होगा। कुछ ने बुद्ध से सुना हो, कुछ ने कृष्ण से, कुछ ने क्राइस्ट से, कुछ ने मुहम्मद से, किसी ने लाओत्सु से, जरथुस्त्र से। पथ्वी पर इतने अनंत परुष हए हैं. उन सबको तम पार करके आते गए हो। इतने दीये जले हैं. असंभव है कि किसी दीये की रोशनी तुम्हारी आंखों में न पड़ी हो। तुम्हारा प्याला बहुत बार भरा गया है।
अरे अभागे! कितनी बार भरा
अनदेखे, छलक-छलक बह गया तुम्हारा प्याला! तुम्हारा प्याला भर भी दिया जाता है तो भी खाली रह जाता है। तुम उसे संभाल नहीं पाते।
और गीत वह मुझसे बोला दुर्निवार! अरे, तुम अभी तक नहीं जागे? और यह मुक्त स्रोत-सा
सभी ओर बह चला उजाला। सुबह होने लगी। और बहुत बार सुबह हुई है, और बहुत बार सूरज निकला, पर तुम हो कि अपने अंधेरे को पकड़े बैठे हो। यह अभागापन तुम छोड़ोगे तो छूटेगा। ____ जनक कहने लगे, एक ही दिखाई पड़ता है। मैं उसी एक में लीन हो गया हूं। वह एक मुझमें लीन हो गया है।
वेद यह कहते हैं जो इन्सां त्यागी, यानी संन्यासी है वेदों से भी है बलातर उसकी जगमग जग से बढ़कर वह बसता है जगदीश्वर में उसमें बसता है जगदीश्वर!
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1