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सही है कि अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है। लेकिन इस परिभाषा में थोड़ा समझ लेना, अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है यह सच है; चित्त वृत्तियों का शून्य हो जाना योग है यह सच है; लेकिन बात को उलटी तरफ से मत पकड़ लेना । अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है, इसलिए अंधेरे को न करने में मत लग जाना। वस्तुतः स्थिति दूसरी तरफ से है। प्रकाश का हो जाना अंधेरे का न हो जाना है। तुम प्रकाश जला लेना, अंधेरा अपने-आप चला जायेगा । अंधेरा है ही नहीं । अंधेरा केवल अभाव है।
पतंजलि कहते हैं, चित्त - वृत्तियों को शांत करो तो तुम आत्मा को जान लोगे। अष्टावक्र कहते हैं, आत्मा को जान लो, चित्त वृत्तियां शांत हो जायेंगी। आत्मा को जाने बिना तुम चित्त वृत्तियों को शांत कर भी न सकोगे। आत्मा को न जानने के कारण ही तो चित्त वृत्तियां उठ रही हैं। समझा अपने को कि मैं शरीर हूं तो शरीर की वासनाएं उठती हैं। समझा अपने को कि मैं मन हूं तो मन की वासनाएं उठती हैं। जिसके साथ तुम जुड़ जाते हो उसी की वासनाएं तुममें प्रतिछायित होती हैं, प्रतिबिंबित होती हैं। जिसके पास बैठ जाते हो, उसी का रंग तुम पर चढ़ जाता है।
तुम
जैसे स्फटिक मणि को कोई रंगीन पत्थर के पास रख दे, तो रंगीन पत्थर का रंग मणि पर झलकने लगता है। लाल पत्थर के पास रख दो, मणि लाल मालूम होने लगती है। नीले पत्थर के पास रख दो, मणि नीली मालूम होने लगती है। यह सान्निध्य - दोष है । मणि नीली हो नहीं जाती, सिर्फ प्रतीत होती है।
अंधेरा केवल प्रतीत होता है, है नहीं । प्रकाश के न होने का नाम अंधेरा है । अंधेरे की अपनी कोई सत्ता नहीं, अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं। तो तुम अंधेरे से मत लड़ने लगना ।
योग और अष्टावक्र की दृष्टि बड़ी विपरीत है। इसलिए मैंने कहा, अगर अष्टावक्र को समझना हो तो कृष्णमूर्ति को समझने की कोशिश करना। कृष्णमूर्ति अष्टावक्र का आधुनिक संस्करण हैं। ठीक आधुनिक भाषा में, आज की भाषा में कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह शुद्ध अष्टावक्र का सार है। कृष्णमूर्ति के मानने वाले ऐसा सोचते हैं कि कृष्णमूर्ति कोई नयी बात कह रहे हैं। नयी बात कहने को है ही नहीं। जो भी कहा जा सकता है, कहा जा चुका है। जितने जीवन के पहलू हो सकते हैं, सब छाने जा चुके हैं। अनंत काल से आदमी खोज कर रहा है। इस सूरज के नीचे नया कहने को कुछ है ही नहीं । केवल भाषा बदलती है, आवरण बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं ! समय के अनुसार नयी धारणाओं का प्रयोग बदलता है। लेकिन जो कहा जा रहा है, वह ठीक वही है ।
अष्टावक्र की भाषा अति प्राचीन है। कृष्णमूर्ति की भाषा अति नवीन है। लेकिन जो थोड़ा भी समझ सकता है, उसे दिखाई पड़ जायेगा कि बात तो वही है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं, योग की कोई जरूरत नहीं, ध्यान की कोई जरूरत नहीं, जप-तप की कोई जरूरत नहीं। ये सब अनुष्ठान हैं। अनुष्ठान उसके लिए करना होता है, जो हमारा स्वभाव नहीं है, स्वभाव को पाने के लिए क्या अनुष्ठान करना है? सब अनुष्ठान छोड़ कर अपने में झांक लो, स्वभाव प्रगट हो जायेगा ।
'तू असंग है, क्रिया - शून्य है, स्वयं-प्रकाश और निर्दोष है !' – यह घोषणा तो देखो !
अष्टावक्र कहते हैं, तू निर्दोष है, इसलिए तू भूलकर भी यह मत समझना कि मैं पापी हूं। लाख तुम्हारे साधु-संत कहे चले जायें कि तुम पापी हो, पाप का प्रक्षालन करो, पश्चात्ताप करो, बुरे कर्म
साधना नहीं निष्ठा, श्रद्धा
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