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अबस है कि अब राजदा हो गये हम । सुकूं खो दिया हमने तेरे जुनूं में, तेरे गम में शोला-बजां हो गये हम। हुए इस तरह खम जमानों के हाथों, कभी तीर थे, अब कमां हो गये हम । न रहबर न कोई रफीके - सफर है, ये किस रास्ते पर रवां हो गये हम ।
हमें बेखुदी में बड़ा लुत्फ आया, कि गुम हो के मंजिलनिशां हो गये हम।
यह मंजिल ऐसी है कि खो कर मिलती है। तुम जब तक हो, तब तक नहीं मिलेगी ; तुम खोये कि मिलेगी।
हमें बेखुदी में बड़ा लुत्फ आया,
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जहां तुम नहीं, जहां तुम्हारा अहंकार गया, जहां बेखुदी आई... हमें बेखुदी में बड़ा लुत्फ आया, कि गुम हो के मंजिलनिशां हो गये हम।
कि खो कर और पहुंच गये ! यह रास्ता मिटने का रास्ता है।
अगर तुम्हें लगता है, 'मेरी समर्पण की पात्रता कहां?' तो मिटना शुरू हो गये, बेखुदी आने लगी । अगर तुम्हें लगता है कि 'मेरी श्रद्धा कहां ?' तो बेखुदी आने लगी, तुम मिटने लगे। संन्यास यही है कि तुम मिट जाओ, ताकि परमात्मा हो सके।
न रहबर, न कोई रफीके - सफर है !
यह तो बड़ी अकेले की यात्रा है।
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न रहबर, न कोई रफीके - सफर है !
न कोई साथी है, न कोई मार्गदर्शक है। अंततः तो गुरु भी छूट जाता है, क्योंकि वहां इतनी जगह भी कहां! प्रेम-गली अति सांकरी, तामें दो न समायें ! वहां इतनी जगह कहां कि तीन बन सकें ! दो भी नहीं बनते। तो शिष्य हो, गुरु हो, परमात्मा हो, तब तो तीन हो गए ! वहां तो दो भी नहीं बनते। तो वहां गुरु भी छूट जाता है। वहां तुम भी छूट जाते; वहां परमात्मा ही बचता है।
न रहबर, न कोई रफीके - सफर है
ये किस रास्ते पर रवां हो गये हम ।
संन्यास तो बड़ी अनजानी यात्रा है; बड़ी हिम्मत, बड़े साहस की यात्रा है ! जो अनजान में उतरने का जोखिम ले सकते हैं — उनकी । यह होशियारों, हिसाब लगाने वालों का काम नहीं । यह कोई गणित नहीं है। यह तो प्रेम की छलांग है।
अष्टावक्र: महागीता भाग-1