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चलूंगा, जहां तक तुम्हारी बुद्धि जा सकती है; फिर सीमांत आयेगा, फिर सीमा आयेगी, फिर तुम्हारे ऊपर निर्भर होगा। सीमा पर खड़े होकर तुम देख लेना-अपना अतीत और अपना भविष्य । फिर तुम देख लेना -पीछे जिस बुद्धि में तुम चल कर आये हो, वह; और आगे जो संभावना खुलती है, वह । आगे की संभावना हृदय की है।
विचार से कभी कोई जीवन की संपदा को उपलब्ध नहीं हुआ ध्यान से, साक्षी भाव से, प्रेम से, प्रार्थना से, भक्ति के रस से, कोई उपलब्ध हुआ है । फिर तुम्हारे हाथ में है, अगर तुम्हें बंजर रेगिस्तान रह जाना हो, तुम्हारी मर्जी, तुम मालिक हो अपने ।
लेकिन एक बार तुम्हें मैं किनारे तक ले आऊं, जहां से तुम्हें सुंदर उपवन दिखाई पड़ने लगें, हरियालियां, घाटियां और वादियां, और पहाड़, हिम शिखर ! बस एक दफे तुम्हें दिखा देना है वहां तकलाकर, फिर तुम्हारी मौज ! फिर लौटना तो लौट जाना। लेकिन तब तुम जानोगे कि अपने ही कारण लौटे हो। तब उत्तरदायित्व तुम्हारा है।
तुम्हारे तर्क को मैं वहां तक ले चलता हूं, जहां से तुम्हें पहली झलक मिल जाये स्वर्ण-शिखरों की; जहां से तुम्हें पहली दफा आकाश का थोड़ा-सा दर्शन हो जाये, फिर वह दर्शन तुम्हारा पीछा करेगा । फिर वह मंडरायेगा तुम्हारे भीतर। फिर वह पुकार बढ़ती चली जायेगी । फिर धीरे-धीरे जो बूंद-बूंद गिरा था, वह बड़ी धार की तरह गिरने लगेगा; तुम बच नहीं सकोगे। क्योंकि एक बार हृदय की थोड़ी-सी भी झलक मिल जाये तो फिर बुद्धि कूड़ा-कचरा है। जब तक झलक नहीं मिली, तब तक कूड़ा-कचरा ही हीरा - जवाहरात मालूम होता है।
'क्या मेरे लिए यह खतरा नहीं है कि तर्क-पोषित दिमाग दिल पर हावी हो जाये ?'
खतरा है। जरा सजगता रखना। हम चाहें तो राह में पड़े हुए पत्थर को बाधा बना सकते हैं, और वहीं रुक जायें; और हम चाहें तो राह में पड़े पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं, उस पर चढ़ जायें और . पार हो जायें। तुम पर निर्भर है कि तुम तर्क-पोषित मस्तिष्क को बाधा बनाओगे कि सीढ़ी बनाओगे। जिन्होंने सीढ़ी बनाई, वे महायात्रा पर निकल गए; जिन्होंने बाधा बना ली, वे डबरे बन कर रह गए।
नास्तिक एक डबरा है। आस्तिक सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिता है । नास्तिक सड़ता है। जैसे ही पानी की धारा बहने से रुक जाती है, वैसे ही सड़ांध शुरू हो जाती है। पानी निर्मल होता है, जब बहता रहता है। लेकिन बहने के लिये तो सागर चाहिए; नहीं तो बहोगे क्यों? बहने के लिए परमात्मा चाहिए; नहीं तो बहोगे क्यों? कुछ है ही नहीं पाने को, कुछ है ही नहीं होने को – जो हो गया, बस वही काफी है...।
इसे खयाल रखना, दुनिया में दो तरह के लोग हैं, दुनिया दो तरह के वर्गों में विभाजित है। एक वर्ग है, जो बाहर की चीजों से कभी संतुष्ट नहीं - यह मकान, तो दूसरा चाहिए; इतना धन, तो और धन चाहिए; यह स्त्री, तो और तरह की स्त्री चाहिए- जो बाहर की चीजों से कभी संतुष्ट नहीं, और भीतर, जिसके भीतर कोई असंतोष नहीं । भीतर, जिसके भीतर असंतोष उठता ही नहीं, बस बाहर ही बाहर असंतोष है। यह सांसारिक आदमी है। फिर एक और दूसरी तरह का आदमी है, जो बाहर जो भी है, उससे संतुष्ट है; लेकिन भीतर जो है, उससे संतुष्ट नहीं है। उसके भीतर एक ज्वाला है - एक दिव्य असंतोष । वह सतत प्रक्रिया में, सतत रूपांतरण में, सतत क्रांति में जीता हैं ।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1