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होती है मन को कि यह क्या जाल हो गया! अब वह मेरे पास आई कि मुझे बाहर निकाल लें, आपके हाथ का सहारा चाहिए। बस ऐसी ही अवस्था है। ___ जन्मों-जन्मों तक सोने के अभ्यास को तुमने बहुत गहरा कर लिया है। जागे हुए को सोने के भ्रम में डाल दिया है। सम्राट को भिखारी मान लिया है। लेकिन इतने जन्मों तक माना है कि आज अपने ही अभ्यास के कारण...। सिर्फ सुन लेने से कुछ नहीं होता। तुम मेरी बात सुन ले सकते हो, उससे कुछ भी न होगा-जब तक कि तुम उसे गुनो न; जब तक कि तुम राजी न हो जाओ। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई जगा न सकेगा। नहीं तो एक बुद्धपुरुष काफी था; शोरगुल मचा कर सबको जगा देता; ढोल-ढमास पीट देता और सबको जगा देता।
इधर सौ आदमी सो रहे हों तो एक आदमी जगाने के लिए काफी है। वस्तुतः आदमी की भी जरूरत नहीं है, अलार्म घड़ी भी जगा देती है। एक आदमी आ जाये और ढोल पीट दे, सब उठ जाएंगे; घंटा बजा दे, सब उठ जाएंगे। लेकिन यह क्यों नहीं हो सका कि बुद्ध हुए, महावीर हुए, अष्टावक्र हुए, कृष्ण हुए, क्राइस्ट हुए, जरथुस्त्र, लाओत्सु-इन लोगों ने ऐसा क्यों न किया कि जोर से घंटा बजा देते, सारी पृथ्वी जाग जाती? घंटा खूब बजाया, मगर कोई सो रहा हो तो जागे; यहां बने हुए लोग पड़े हैं! वे आंखें बंद किये पड़े हैं। वे सुन लेते हैं घंटे को। वे कहते हैं : बजाते रहो, देखें कौन हमको जगाता है! - जब तुम जागना चाहोगे तो जागोगे। भ्रम में मैं तुम्हें डाल नहीं सकता। भ्रम में तो तुम हो; अब
और भ्रम में तुम्हें क्या डाला जा सकता है? तुम्हें और भी भटकाया जा सकता है तुम सोचते हो? तुम सोचते हो और कुछ भटकने को बचा है? इससे नीचे तुम और गिर सकते हो, गिरने की कोई और जगह है? लोभ जितना तम्हारे भीतर है. इससे थोडा इंच भर और ज्यादा हो सकता है? क्रोध तम्हारे भीतर है. इससे थोडा और ज्यादा हो सकता है, एक रत्ती-माशा? वासना ने जैसा तम्हें घेरा है, और वासना बढ़ सकती है? तुम आखिरी जगह खड़े हो। जो प्रथम होना चाहिए वह आखिर में खड़ा है। जो सम्राट होना चाहिए वह भिखमंगा हो कर खड़ा है। इससे पीछे अब तुम जा भी नहीं सकते। इसके पार गिरने का उपाय भी नहीं है।
तुम्हें भ्रम में डालने की कोई सुविधा नहीं है। कोई डालना भी चाहे तो डाल नहीं सकता। हां, कोई इतना ही कर सकता है ज्यादा से ज्यादा : तुम्हारे भ्रम बदल दे; एक भ्रम से तुम ऊब जाओ तो दूसरा भ्रम दे दे। यही साधु-संन्यासी करते रहते हैं। संसार का भ्रम उखड़ने लगा, ऊब पैदा होने लगी, खूब जी लिए, अब कुछ सार नहीं, देख लिया तो अध्यात्म का भ्रम पैदा करते हैं। कहते हैं कि 'चलो अब स्वर्ग का मजा लो! थोड़ा पुण्य करो; त्याग, तपश्चर्या करो; स्वर्ग में अप्सराएं भोगो। यहां बहुत भोग लीं, कुछ पाया नहीं। यहां चुल्लू-चुल्लू शराब पीते रहे; वहां बहिश्त में, फिरदौस में झरने बह रहे हैं शराब के, डुबकियां लगाना! यहां क्या रखा है? स्वर्ग में स्वर्ण के महल हैं; हीरे-जवाहरातों के वृक्ष हैं-वहां मजा लो! कल्पवृक्ष हैं, उनके नीचे बैठो! यहां तो रोना-धोना खूब कर लिया!' लेकिन यह नया भ्रम है। ____ मैं तुम्हें कोई नया भ्रम नहीं दे रहा। मैं तुमसे सिर्फ इतना कह रहा हूं: काफी भ्रम देख लिए, अब थोड़ा जागो!
समाधि का सूत्रः विश्राम
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