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है। रात तम सोते हो, तब तुम्हारा द्रष्टा सपने देखता है। जब सपने भी नहीं रह जाते. सिर्फ गहरी तंद्रा होती है, सुषुप्ति होती है-तब तुम्हारा द्रष्टा सुषुप्ति देखता है कि खूब गहरी नींद...! इसीलिए तो सुबह उठकर तुम कभी कहते हो कि रात खूब गहरी नींद लगी। किसने देखी! अगर तुम पूरे के पूरे सो गए थे, और तुम्हारे भीतर कोई देखने वाला न बचा था, तो किसने देखी? किसने जानी? किसको यह खबर मिली? कौन यह कह रहा है? सुबह उठकर कौन कहता है कि रात मैं गहरी नींद सोया? अगर तुम सो ही गये थे तो जानने वाला कौन था? जरूर तुम्हारे भीतर कोई जागता रहा, कोई एक कोने में दीया जलता रहा, और देखता रहा कि गहरी नींद, बड़ी विश्रांतिमयी, बड़ी आह्लादकारी, बड़ी शांत, स्वप्न की भी कोई तरंग नहीं, कोई तनाव नहीं, कोई विचार नहीं! कोई देखता रहा है। सुबह उसी देखने वाले ने कहा है कि रात बड़ी गहरी नींद रही। रात सपने भरे रहे तो सुबह तुम कहते हो, रात सपनों में गई, न मालूम कैसे-कैसे दुख-स्वप्न देखे! जरूर, देखने वाला सपनों में खो नहीं गया था। जरूर देखने वाला सपना हो नहीं गया था। देखने वाला अलग ही खड़ा रहा!
फिर दिन में तुम खुली आंख की दुनिया देखते हो। दुकान पर तुम दुकानदार हो, मित्र के साथ तुम मित्र हो, शत्रु के साथ तुम शत्रु हो। घर आते हो-पत्नी के साथ पति हो, बेटे के साथ पिता हो, पिता के साथ बेटे हो। फिर हजार-हजार रूप...! यह भी तुम देखते हो। लेकिन तुम इन सबके पार देखने वाले हो। कभी सफलता देखते हो कभी विफलता, कभी बीमारी कभी स्वास्थ्य, कभी सौभाग्य के दिन कभी दुर्भाग्य के दिन; लेकिन एक बात तय है, कि ये सब आते और जाते; तुम न आते, तुम न जाते। _ 'मैं आश्चर्यमय हूं। मुझको नमस्कार है। मैं देहधारी होता हुआ अद्वैत! न कहीं जाता न कहीं आता...।'
न क्वचित गंता, न क्वचित आगंता न जाता न आता। बस हूं। यह होना मात्र ही स्वरूप है। '...और संसार को घेर कर स्थित हूं।'
और संसार को मैंने घेरा! यही तो तुम्हारा संसार है। यह संसार तुम्हारे भीतर है, तुम इस संसार के भीतर नहीं। तुम इसके मालिक हो, तुम इसके गुलाम नहीं। तुम जिस क्षण चाहो, पंख फैला दो
और उड़ जाओ! अगर तुम इसके भीतर हो तो अपनी मर्जी से हो, किसी की जबर्दस्ती से नहीं। ___इतना तुम्हें खयाल रहे, फिर कुछ अड़चन नहीं है। फिर अगर तुम बंधन में पड़े हो अपनी मर्जी से, तो बंधन भी बंधन नहीं है। फिर तुम्हारी जो मर्जी, फिर तुम्हें जो करना हो करो। लेकिन एक बात भर मत भूलना कि तुम कर्ता नहीं हो, कर्ता फिर एक रूप है; भोक्ता नहीं हो, भोक्ता एक रूप है। तुम साक्षी हो! वही तुम्हारी शाश्वतता है।
पूरब में, हमारा सबसे बड़ा खोज का जो लक्ष्य रहा है, वह उसे खोज लेना है, जो समयातीत है, कालातीत है। जो समय की धारा में बनता-बिगड़ता है, वह प्रतिबिंब है। जो समय के पार खड़ा हैसाक्षीवत-वंही सत्य है।
'मैं आश्चर्यमय हूं। मुझको नमस्कार है। मेरे समान निपुण कोई नहीं!' सुनते हो? जनक कहते हैं, मेरे समान निपुण कोई भी नहीं!
मेरा मुझको नमस्कार
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