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से गिरते देख कर वह परम बोध को उपलब्ध हो गया। सूखा पत्ता गुरु हो गया। बस देख लिया सब! देख लिया उस सूखे पत्ते में अपना जन्म, अपना मरण! उस सूखे पत्ते की मौत में सब मर गया। आज नहीं कल मैं भी सूखे पत्ते की तरह गिर जाऊंगा-बात पूरी हो गई।
खुद बुद्ध को ऐसा ही हुआ था। राह पर देख कर एक बीमार बूढ़े आदमी को वे चौंक गए। मुर्दे की लाश को देख कर उन्होंने पूछा, इसे क्या हुआ?
सारथी ने कहा, यही आपको भी, सभी को होगा। एक दिन मौत आएगी ही।
फिर बुद्ध ने कहा, लौटा लो रथ घर की ओर वापिस। अब कहीं जाने को न रहा। जब मौत आ रही है, जीवन व्यर्थ हो गया!
तुमने भी राह से निकलती लाशें देखी हैं। तुम भी राह के किनारे खड़े हो कर क्षण भर को सहानुभूति प्रगट किए हो। तुम कहते हो, बहुत बुरा हुआ, बेचारा मर गया! अभी तो जवान था। अभी तो घर-गृहस्थी कच्ची थी। बुरा हुआ!
तुमने दया की है जो मर गया उस पर। तुम्हें जरा भी दया अपने पर नहीं आई कि उस मरने वाले में तुम्हारे मरने की खबर आ गई, कि जैसे आज यह अर्थी पर बंधा जा रहा है; कल, कल नहीं परसों तुम भी बंधे चले जाओगे। जैसे आज तुम राह के किनारे खड़े हो कर इस पर सहानुभूति प्रगट कर रहे हो, दूसरे लोग राह के किनारे खड़े हो कर सहानुभूति प्रगट करेंगे। अवश तुम इतने होओगे कि धन्यवाद भी न दे सकोगे। यह जो लाश जा रही है, यह तुम्हारी है।
देखने वाला हो, आंख हो, गहरी हो, प्रगाढ़ चैतन्य हो, तो बस एक आदमी मरा कि सारी मनुष्यता मर गई, कि जीवन व्यर्थ हो गया!
बुद्ध चले गए थे छोड़ कर।
तो जब उन्हें बोध हुआ, तो उन्होंने सोचा कि जिसको जागना है वह बिना किसी के जगाए भी जग जाता है। उसे कोई भी बहाना काफी हो जाता है।
कहते हैं, एक झेन साधिका कुएं से पानी भर कर लौटती थी कि बांस टूट गया, घड़े नीचे गिर गए। पूर्णिमा की रात थी, घड़ों में चांद का प्रतिबिंब बन रहा था। कांवर को लिए, घड़ों को लटकाए वह लौटती थी आश्रम की तरफ, देखती घड़ों के जल में चांद के प्रतिबिंब को बनते। घड़े गिरे। चौंक कर खड़ी हो गई। घड़ा गिरा, जल बहा-चांद भी बह गया! कहते हैं, बस बोध को उत्पन्न हो गई। सम्यक समाधि लग गई। नाचती हुई लौटी; दिखाई पड़ गया कि यह जगत प्रतिबिंब से ज्यादा नहीं है। यहां जो हम बनाए चले जा रहे हैं, यह कभी भी टूट जाएगा। ये सब चांद खो जाएंगे। ये सब सुंदर कविताएं खो जाएंगी। ये मनमोहिनी सूरतें सब खो जाएंगी। ये सब पानी में बने प्रतिबिंब हैं। ऐसा दिख गया, बात खतम हो गई।
तो बुद्ध ने सोचा, क्या सार है? किससे कहूंगा? जिसे जागना है, वह मेरे बिना भी देर-अबेर जाग ही जाएगा, थोड़े-बहुत समय का अंतर पड़ेगा। और जिसे जागना नहीं है, चीखो-चिल्लाओ, वह करवट ले कर सो जाता है। आंख भी खोलता है तो नाराजगी से देखता है कि क्यों नींद खराब कर रहे हो? तुम्हें कोई और काम नहीं? सोयों को सोने नहीं देते! शांति से नींद चल रही थी, तुम जगाने आ गए!
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1