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पर आकर खड़ी हो जाएगी। जब एक पैर उतर चुकेगा कब्र में तब हम एक पैर ध्यान के लिए उठाएंगे।
मचल ले अभी कुछ देर और ऐ दिल! सुहाने धुंधलके से हंस कर गले मिल
अभी रात आने में काफी समय है। ऐसे हम टाले चले जाते हैं। रात आती चली जाती है। काफी समय नहीं है, रात आ ही गई है। बहुत बार हमने ऐसे ही जन्म और जीवन गंवाया, मौत की हम प्रतीक्षा करते रहे-मौत आ गई, ध्यान आने के पहले। एक जीवन फिर खराब गया। एक अवसर फिर व्यर्थ हुआ। अब इस बार ऐसा न हो। अब टालो मत! यह गंध तुम्हारी अपनी है। यह जीवन तुम्हारे भीतर ही छिपा है। चूंघट भीतर के ही . उठाने हैं।
प्रश्न कहीं बाहर पूछने का नहीं है। उत्तर कहीं से बाहर से आने को नहीं है। जहां से प्रश्न उठ रहा है भीतर, वहीं उतर चलो। प्रश्न भी साफ नहीं है, फिक्र मत करो। जहां यह गैर-साफ धुंधलका है प्रश्न का, वहीं उतरो। उसी संध्या से भरी रोशनी में, धुंधलके में धीरे-धीरे भीतर उतरो। जहां से प्रश्न आ रहा है, उसी की खोज करो। प्रश्न की बहुत फिक्र मत करो कि प्रश्न क्या है—इतनी ही फिक्र करो कि कहां से आ रहा है? अपने ही भीतर उस तल को खोजो, उस गहरे तल को, जहां से प्रश्न का बीज उमगा है, जहां से प्रश्न के पत्ते उठे हैं। वहीं जड़ है और वहीं तुम उत्तर पाओगे। __उत्तर का अर्थ यह नहीं कि तुम्हें कोई बंधा-बंधाया उत्तर, निष्कर्ष वहां मिल जाएगा। उत्तर का अर्थः वहां तुम्हें जीवन का अहोभाव अनुभव होगा। वहां जीवन एक समस्या नहीं रह जाता, उत्सव बन जाता है।
एक चिकना मौन जिसमें मुखर, तपती वासनाएं दाहक होती, लीन होती हैं। उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद ऋत विज्ञप्त होता है! एक चिकना मौन जिसमें मुखर, तपती वासनाएं
दाहक होती, लीन होती हैं। नहीं, भीतर एक मौन, एक शांति, जिसमें सारी वासनाओं का ताप धीरे-धीरे खो जाता और शांत हो जाता है। उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद-फिर कोई स्वर सुनाई नहीं देते, सिर्फ छंद गूंजता है-शब्दहीन, स्वरहीन छंद। शुद्ध छंद गूंजता है।
उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
ऋत विज्ञप्त होता है! वहीं जीवन का सत्य प्रगट होता है—ऋत विज्ञप्त होता है।
एक काले घोल की-सी रात जिसमें रूप, प्रतिमा, मूर्तियां
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1
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