________________
डाक्टर ने कहा, हमेशा नहीं। अभी कल की ही बात है। एक व्यक्ति का दांत मरोड़ कर निकालते समय मेरी कलाई उतर गयी! ___ डाक्टर का दर्द अपना है। दांत निकलवाने जो आया है, उसकी फिक्र दूसरी है; उसका दर्द अपना
मुल्ला नसरुद्दीन को एक जगह नौकरी पर रखा गया। मालिक ने कहा, जब तुम्हें नौकरी पर रखा गया था, तब तुमने कहा था कि तुम कभी थकते नहीं, और अभी-अभी तुम मेज पर टांग पसार कर सो रहे थे। __ मुल्ला ने कहा, मालिक, मेरे न थकने का यही तो राज है। __ हम अपने अर्थ डाले चले जाते हैं। और जब तक हम अपने अर्थ डालने बंद न करें, तब तक शास्त्रों के अर्थ प्रगट नहीं होते! शास्त्र को पढ़ने के लिए एक विशेष कला चाहिए, शास्त्र को पढ़ने के लिए धारणा-रहित, धारणा-शून्य चित्त चाहिए। शास्त्र को पढ़ने के लिए व्याख्या करने की जल्दी नहीं; श्रवण का, स्वाद का, संतोष-पूर्वक, धैर्यपूर्वक आस्वादन करने की क्षमता चाहिए।
सुनो इन सूत्रों को'प्रकाश मेरा स्वरूप है। मैं उससे अलग नहीं हूं जब संसार प्रकाशित होता है, तब वह मेरे प्रकाश से ही प्रकाशित होता है।'
प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः। यह सारा जगत मेरे ही प्रकाश से प्रकाशित है, कहते हैं जनक।
निश्चित ही यह प्रकाश 'मैं' का प्रकाश नहीं हो सकता, जिसकी जनक बात कर रहे हैं। यह प्रकाश तो 'मैं-शून्यता' का ही प्रकाश हो सकता है। इसलिए भाषा पर मत जाना, काफिया-गो मत बनना, बुद्धि की दखलंदाजी मत करना। सीधा-सादा अर्थ है, इसे इरछा-तिरछा मत कर लेना। _ 'प्रकाश मेरा स्वरूप है।' __कहने को तो ऐसा ही कहना पड़ेगा, क्योंकि भाषा तो अज्ञानियों की है। ज्ञानियों की तो कोई भाषा नहीं। इसलिए कभी अगर दो ज्ञानी मिल जायें तो चुप रह जाते हैं, बोलें भी क्या? न तो भाषा है कुछ, न बोलने को है कुछ। न विषय है बोलने के लिए कुछ, न जिस भाषा में बोल सकें वह है। ___ कहते हैं, फरीद और कबीर का मिलना हुआ था, दो दिन चुप बैठे रहे। एक दूसरे का हाथ हाथ में ले लेते, गले भी लग जाते, आंसुओं की धार भी बहती, खूब मगन होकर डोलने भी लगते! __शिष्य तो घबड़ा गये। शिष्यों की बड़ी आकांक्षा थी कि दोनों बोलेंगे, तो हम पर वर्षा हो जायेगी। कुछ कहेंगे, तो हम सुन लेंगे। एक शब्द भी पकड़ लेंगे तो सार्थक हो जायेगा जीवन।
लेकिन बोले ही नहीं। दो दिन बीत गए। वे दो दिन बड़े लंबे हो गये। शिष्य प्रतीक्षा कर रहे हैं, और कबीर और फरीद चुप बैठे हैं। अंततः जब विदा हो गये, कबीर विदा कर आये फरीद को, तो फरीद के शिष्यों ने पूछा, क्या हुआ? बोले नहीं आप? ऐसे तो आप सदा बोलते हैं। हम कुछ भी पूछते हैं तो बोलते हैं। और हम इसी आशा में तो आपको मिलाए कबीर से कि कुछ आप दोनों के बीच होगी बात, कुछ रस बहेगा, तो हम अभागे भी थोड़ा-बहुत उसमें से पी लेंगे। दोनों किनारों को पास कर दिया था-गंगा बहेगी, हम भी स्नान कर लेंगे लेकिन गंगा बही ही नहीं। मामला क्या हुआ?
मेरा मुझको नमस्कार
225